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वासंती / अज्ञेय

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मेरी पोर-पोर
गहरी निद्रा में थी
जब तुमने मुझे जगाया।
हिमनिद्रा में जड़ित रीछ
हो एकाएक नया चौंकाया-यों मैं था।
पर अब! चेत गयी हैं सभी इन्द्रियाँ
एक अवश आज्ञप्ति उन्हें कर गयी सजग,
सम्पुजित; पूरा जाग गया हूँ
एक बसन्ती धूप-सने खग-रव में;
जान गया हूँ
उस पगले शिल्पी ईश्वर का क्रिया-कल्प!
फिर छुओ!
प्राण पा गयी है वह प्रस्तर प्रतिमा!

नयी दिल्ली, 6 अक्टूबर, 1980