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+ | भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे।। | ||
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+ | मोहमय कुहू-निशा बिसाल काल बिपुल सोयो, | ||
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+ | बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे।। | ||
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+ | देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप, | ||
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+ | श्रवन सुनि गँभीर, जागे अति धीर बीर, | ||
+ | बर बिराग-तोष सकल संत आदरे। | ||
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+ | तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु, | ||
+ | भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे।। | ||
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19:23, 28 मार्च 2011 का अवतरण
पद 73 से 74 तक
(73),
जागु, जागु,जीव जड़! जोहै जग-जामिनी।
देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनी।1।
सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-संताप रे।
बूड्यो मृग-बारि खायो जेवरीको साँप रे।2।
कहैं बेद-बुध, तू तो बूझि मनमाहिं रे।
दोष-दुख सपनेके जागे ही पै जाहिं रे।3।
तुलसी जागेते जाय ताप तिहूँ ताय रे।
राम-नाम सुचि रूचि सहत सुभाय रे।4।
(74)
जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
जागि त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे।
करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र,
भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे।।
मोहमय कुहू-निशा बिसाल काल बिपुल सोयो,
खोयो से अनूप रूप सुपन जू परे।
अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,
बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे।।
भागे मद-मान चोर जानि जातुधान,
काम-क्रेाध-लोभ-छोभ-निकर अपडरे।
देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,
ताप त्रिबिधि प्रेम-आप दूर ही करे।।
श्रवन सुनि गँभीर, जागे अति धीर बीर,
बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।
तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे।।