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"विनयावली / तुलसीदास / पद 71 से 80 तक / पृष्ठ 2" के अवतरणों में अंतर

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ताप त्रिबिधि प्रेम-आप दूर ही करे।।
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श्रवन सुनि गँभीर, जागे अति धीर बीर,
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बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।
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तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
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भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे।।
  
  
  
 
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19:23, 28 मार्च 2011 का अवतरण

पद 73 से 74 तक

(73),

जागु, जागु,जीव जड़! जोहै जग-जामिनी।
देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनी।1।

सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-संताप रे।
 बूड्यो मृग-बारि खायो जेवरीको साँप रे।2।

 कहैं बेद-बुध, तू तो बूझि मनमाहिं रे।
दोष-दुख सपनेके जागे ही पै जाहिं रे।3।

तुलसी जागेते जाय ताप तिहूँ ताय रे।
राम-नाम सुचि रूचि सहत सुभाय रे।4।


(74)

 जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
जागि त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे।

करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र,
भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे।।

मोहमय कुहू-निशा बिसाल काल बिपुल सोयो,
खोयो से अनूप रूप सुपन जू परे।
 
अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,
बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे।।

भागे मद-मान चोर जानि जातुधान,
काम-क्रेाध-लोभ-छोभ-निकर अपडरे।

देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,
ताप त्रिबिधि प्रेम-आप दूर ही करे।।
 
श्रवन सुनि गँभीर, जागे अति धीर बीर,
बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।

तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे।।