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'''भाग-1'''
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(1)
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गाइये गनपति जगबंदन। संकर सुवन भवानी नंदन।1।
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सिद्धि- सदन, गज बदन, बिनायक। कृपा सिंधु, सुंदर, सब लायक।2।
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मोदक-प्रिय , मुद मंगल-दाता। बिद्या-बारिधि, बुद्धि-बिधाता।3।
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मांगत तुलसिदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे।4।
  
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दीन दयालु दिवाकर देवा। कर मुनि, मनुज, सुरासुर सेवा।।1
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हिम तम-करि-केहरि करमाली। दहन दोष दुख दुरित रूजाली।2।
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कोक कोकनद लोक प्रकासी। तेज प्रताप रूप् रस-रासी।3।
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सारथि-पंगु, दिब्य रथ गामी। हरि संकर बिधि मूरति स्वामी।4।
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बेद पुरान प्रगट जस जागै। तुलसी राम-भगति बर मांगै।5।
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को जांचिये संभु तजि आन।
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दीनदयालु भगत-आरति-हर, सब प्रकार समरथ भगवान।।1।।
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कालकूट जुर जरत सुरासुर, निज पन लागि किये बिषपान।
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दारून दनुज, जगत-दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक ही बान।।2।।
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जो गति अगम महामुनि दर्लभ, कहत संत, श्रुति, सकल पुरान।
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सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान।3।
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सेवत सुलभ, उदार कलपतरू, पारबती-पति परम सुजान।
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देहु काम-रिपु राम-चरन-रति, तुलसिदास कहँ कृपानिधान।4।
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दानी कहुँ संकर-सम नाहीं।
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दीन-दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं।1।
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मारिकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं।
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ता ठाकुरकौ रिझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाहीं।2।
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जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं।
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बेद-बिदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पतंग समाहीं।3।
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ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं।
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तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं।4।
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(5)
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बावरो रावरो नाह भवानी। 
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दानि बडो दिन दये बिनु, बेद-बड़ाई भानी।1।
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निज घरकी बरबात बिलाकहु, हौ तुम परम सयानी।
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सिवकी दई संपदा देखत, श्री-सारदा सिहानी।।
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जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी।
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तिन रंकनकौ नाक सँवारत, हौं  आयो नकबानी।।
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दुख-दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी।
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यह अधिकार सौंपिये औरहिं, भाीख भली मैं जानी।।
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प्रेम-प्रसंसा-बिनय-ब्यंगजुत, सुति बिधिकी बर बानी।।
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तुलसी मुदित महेस मनहिं मन, जगतु-मातु मुसकानी।।
  
गनपति ।।10।।
 
 
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14:10, 9 मार्च 2011 का अवतरण

(1)
गाइये गनपति जगबंदन। संकर सुवन भवानी नंदन।1।
सिद्धि- सदन, गज बदन, बिनायक। कृपा सिंधु, सुंदर, सब लायक।2।
मोदक-प्रिय , मुद मंगल-दाता। बिद्या-बारिधि, बुद्धि-बिधाता।3।
मांगत तुलसिदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे।4।

(2)
दीन दयालु दिवाकर देवा। कर मुनि, मनुज, सुरासुर सेवा।।1
हिम तम-करि-केहरि करमाली। दहन दोष दुख दुरित रूजाली।2।
कोक कोकनद लोक प्रकासी। तेज प्रताप रूप् रस-रासी।3।
सारथि-पंगु, दिब्य रथ गामी। हरि संकर बिधि मूरति स्वामी।4।
बेद पुरान प्रगट जस जागै। तुलसी राम-भगति बर मांगै।5।

(3)
को जांचिये संभु तजि आन।
दीनदयालु भगत-आरति-हर, सब प्रकार समरथ भगवान।।1।।
कालकूट जुर जरत सुरासुर, निज पन लागि किये बिषपान।
दारून दनुज, जगत-दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक ही बान।।2।।
जो गति अगम महामुनि दर्लभ, कहत संत, श्रुति, सकल पुरान।
सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान।3।
सेवत सुलभ, उदार कलपतरू, पारबती-पति परम सुजान।
देहु काम-रिपु राम-चरन-रति, तुलसिदास कहँ कृपानिधान।4।

(4)
दानी कहुँ संकर-सम नाहीं।
दीन-दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं।1।
मारिकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं।
ता ठाकुरकौ रिझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाहीं।2।
जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं।
बेद-बिदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पतंग समाहीं।3।
ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं।
तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं।4।

(5)
बावरो रावरो नाह भवानी।
दानि बडो दिन दये बिनु, बेद-बड़ाई भानी।1।
निज घरकी बरबात बिलाकहु, हौ तुम परम सयानी।
सिवकी दई संपदा देखत, श्री-सारदा सिहानी।।
जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी।
 तिन रंकनकौ नाक सँवारत, हौं आयो नकबानी।।
दुख-दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी।
यह अधिकार सौंपिये औरहिं, भाीख भली मैं जानी।।
प्रेम-प्रसंसा-बिनय-ब्यंगजुत, सुति बिधिकी बर बानी।।
तुलसी मुदित महेस मनहिं मन, जगतु-मातु मुसकानी।।