भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 2

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पद 11 से 20 तक

(12)
 
सदा -
शंकरं, शंप्रदं, सज्जनानंददं, शैल-कन्या-वरं, परमरम्यं।
काम-मद-मोचनं, तामरस-लोचनं, वामदेवं भजे भावगम्यं।।
कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-गौरं शिवं, सुंदरं, सच्चिदानंदकंदं।
सिंद्ध-सनकादि-योगीन्द्र-वृंदारका, विष्णु-विधि-वन्द्य चरणारविंदं।।
ब्रह्म-कुल-वल्लभं, सुलभ मति दुर्लभं, विकट-वेषं, विभुं, वेदपारं।
नौमि करूणाकरं, गरल-गंगाधरं, निर्मलं, निर्गुणं, निर्विकारं।।
लोकनाथं, शोक-शूल-निर्मूलिनं, शूलिनं मोह-तम-भूरि-भानुं।
कालकालं, कलातीतमजरं, हरं, कठिन-कलिकाल-कानन-कृशानुं।।
 तज्ञमज्ञान-पाथोधि-घटसंभवं, सर्वगं, सर्वसौभाग्यमूलं।
प्रचुर-भव-भंजनं, प्रणत-जन-रंजनं, दास तुलसी शरण सानुकूलं।।

(13)

स्ेावहु सिव-चरन-सरोज-रेनु।
 कल्यान-अखिल-प्रद कामधेनु।।
कर्पूर-गौर, करूना-उदार।
संसार-सार, भुजगेन्द्र-हार।।
सुख-जन्मभूमि, महिमा अपार।
निर्गुन, गुननायक, निराकार।।
त्रयनयन, मयन-मर्दन महेस।
अहँकार-निहार-उदित दिनेस।।
बर बाल निसाकर मौलि भ्राज।
त्रैलोक-सोकहर प्रमभराज।।
जिन्ह कहँ बिधि सुगति न लिखी भाल।
तिन्ह की गति कासीपति कृपाल।।
उपकारी कोऽपर हर-समान।
सुर-असुर जरत कृत गरल पान।।
बहु कल्प उपायन करि अनेक।
बिनु संभु-कृपा नहिं भव-बिबेक।।
बिग्यान-भवन, गिरिसुता-रमन।
कह तुलसिदास मम त्राससमन।।

(15)

दुसह दोषं-दुचा,दति, करू देवि दाया।
विश्व- मूलाऽसि, जन- सानुकूलाऽसि, कर शूलधारिणि महामूलमाया।1।
तडित गर्भांग सर्वंाग सुन्दर लसत, दिव्य पट भूषण विराजैं।
बालमृग-मंजु खंजन- विलोचनि, चन्द्रवदनि लखि कोटि रतिमार लाजैं।2।
रूप-सुख-शील-सीमाऽसि, भीमाऽसि,रामाऽसि, वामाऽसि वर बुद्धि बानी।
छमुख-हेरंब-अंबासि, जगदंबिके, शंभु-जायासि जय जय भवानी।3।
चंड-भुजदंड-खंडनि, बिहंडनि महिष मुंड -मद- भंग कर अंग तोरे।
शुंभु -निःशुंभ-कुम्भीश रण-केशरिणि, क्रोध-वारीश अरि -वृन्द बोरे।4।
निगम आगम-अगम गुर्वि! तव गुन-कथन, उर्विधर करत जेहि सहस जीहा।
देहि मा, मोहि पन प्रेम यह नेम निज, राम घनश्याम तुलसी पपीहा।5।
 
(16)

छीन, जय जय जगजननि देवि सुर-नर-मुनि-असुर-सेवि,
भुक्ति-मुक्ति-दायिनी, भय-हरणि कालिका।
मंगल-मुद-सिद्वि-सदनि, पर्वशर्वरीश-वदनि,
ताप-तिमिर-तरूण-तरणि-किरणमालिका।।
वर्म, चर्म कर कृपाण, शूल-शेल -धनुषबाण,
धरणि, दलनि दानव-दल, रण-करालिका।
पूतना-पिंशाच-प्रेत-डाकिनि-शाकिनि-समेत,
भूत-ग्रह-बेताल-खग-मृगालि-जालिका।।
जय महेश-भामिनी, अनेक-रूप-नामिनी,
समस्त-लोक-स्वामिनी, हिमशैल-बालिका।
रघुपति-पद परम प्रेम, तुलसी यह अजल नेम,
देहु ह्वै प्रसन्न पाहि प्रणत-पालिका।।

(17)

जय जय भगीरथ नन्दिनि, मुनि-चय चकोर-चन्दनि,
नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जहनु बालिका।
बिस्नु-पद-सरोजजासि, ईस-सीसपर बिभासि,
त्रिपथ गासि, पुन्रूरासि, पाप-छालिका।1।
बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि,
भँवर बर, बिभंगतर तरंग-मालिका।
पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार,
भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका।2।
थ्नज तटबासी बिहंग, जल-थल-चर पसु-पतंग,
कीट,जटिल तापस सब सरिस पालिका।
तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुवंस-बीर,
बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका।3।

(19)

श्री हरनि पाप, त्रिबिधि ताप सुमिरत सुरसरित।
बिलसित महि कल्प-बेलि मुद-मनोरथ -फरित।।
सोहत ससि धवल धार सुधा-सलिल-भरित।
बिमलतर तरंग लसत रघुबरके-से चरित।।
तो बिनु जगदंब गंग कलिजुग का करित?
घोर भव अपार सिंधु तुलसी किमि तरित।।

(20)

श्री ईस-सीस बससि, त्रिपथ लससि, नभ-पाताल-धरनि।
सुर-नर-मुनि-नाग-सिद्ध-सुजन मंगल-करनि।।
देखत दुख-दोष-दुरित-दाह -दादिद-दरनि।
सगर-सुवन साँसति-समनि, जलनिधि जल भरनि।।
महिमाकी अवधि करसि बहु, बिधि हरनि।
तुलसी करू बानि बिमल, बिमल-बारि बरनि।।