भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"विनय / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत }} '''विनय''' करीब पाँच सौ वर...)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
+
|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत  
|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत
+
|संग्रह=घर एक यात्रा है / श्रीनिवास श्रीकांत
 
+
 
}}
 
}}
 
+
<Poem>
 
+
 
+
'''विनय'''
+
 
+
 
करीब पाँच सौ वर्ष का हुआ है
 
करीब पाँच सौ वर्ष का हुआ है
 
 
अब वह किन्नर देवदार
 
अब वह किन्नर देवदार
 
 
हिमालय के वनों का राजा है वह
 
हिमालय के वनों का राजा है वह
 
+
बर्फ़ानी-ढलानों का एकमात्र स्वामी
बर्फानी ढलानों का एकमात्र स्वामी
+
 
+
  
 
बूढ़ा योद्घा
 
बूढ़ा योद्घा
 
 
अखण्ड कुमार
 
अखण्ड कुमार
 
 
जैसे थे भीष्म
 
जैसे थे भीष्म
 
  
 
अब हिलती नहीं
 
अब हिलती नहीं
 
 
उसकी सुदीर्घ भुजाएँ
 
उसकी सुदीर्घ भुजाएँ
 
 
वह है मौन
 
वह है मौन
 
 
न उसको हिला सकती हैं
 
न उसको हिला सकती हैं
 
 
अब
 
अब
 
 
हिमाद्रि हवाएँ
 
हिमाद्रि हवाएँ
 
  
 
अगर वह चल सकता
 
अगर वह चल सकता
 
 
तो कभी न होने देता
 
तो कभी न होने देता
 
+
दिन-दिहाड़े  
दिन दिहाड़े  
+
 
+
 
पेड़ों का जातिसंहार
 
पेड़ों का जातिसंहार
 
 
नीचे की ढलानों पर
 
नीचे की ढलानों पर
 
  
 
उसने देखे हैं किन्नर बालाओं के
 
उसने देखे हैं किन्नर बालाओं के
 
 
असमापनीय माल-नृत्य
 
असमापनीय माल-नृत्य
 
+
वाद्य-यंत्रों पर थिरकते पाँव
वाद्य यंत्रों पर थिरकते पाँव
+
 
+
 
और लम्बी लम्बी  
 
और लम्बी लम्बी  
 
 
नट-कथाएँ गाते
 
नट-कथाएँ गाते
 
+
किन्नर भाट-चारण
किन्नर भट-चारण
+
 
+
 
खुले आसमान के नीचे
 
खुले आसमान के नीचे
 
 
चकराकर पर्वतों से घिरी
 
चकराकर पर्वतों से घिरी
 
 
धरती के मंच पर
 
धरती के मंच पर
 
  
 
ओ, प्रपिता देवदार!
 
ओ, प्रपिता देवदार!
 
 
जितने भी हमने किये हों
 
जितने भी हमने किये हों
 
 
अतीत में पुण्य
 
अतीत में पुण्य
 
 
वे सब लगें तुम्हारें वंशजों को
 
वे सब लगें तुम्हारें वंशजों को
 
+
तुम्हारा वंश फूले-फले
तुम्हारा वंश फूले फले
+
 
+
 
वे प्रलयान्त तक बने रहें
 
वे प्रलयान्त तक बने रहें
 
 
रससिक्त।
 
रससिक्त।
 +
</poem>

03:56, 12 जनवरी 2009 का अवतरण

करीब पाँच सौ वर्ष का हुआ है
अब वह किन्नर देवदार
हिमालय के वनों का राजा है वह
बर्फ़ानी-ढलानों का एकमात्र स्वामी

बूढ़ा योद्घा
अखण्ड कुमार
जैसे थे भीष्म

अब हिलती नहीं
उसकी सुदीर्घ भुजाएँ
वह है मौन
न उसको हिला सकती हैं
अब
हिमाद्रि हवाएँ

अगर वह चल सकता
तो कभी न होने देता
दिन-दिहाड़े
पेड़ों का जातिसंहार
नीचे की ढलानों पर

उसने देखे हैं किन्नर बालाओं के
असमापनीय माल-नृत्य
वाद्य-यंत्रों पर थिरकते पाँव
और लम्बी लम्बी
नट-कथाएँ गाते
किन्नर भाट-चारण
खुले आसमान के नीचे
चकराकर पर्वतों से घिरी
धरती के मंच पर

ओ, प्रपिता देवदार!
जितने भी हमने किये हों
अतीत में पुण्य
वे सब लगें तुम्हारें वंशजों को
तुम्हारा वंश फूले-फले
वे प्रलयान्त तक बने रहें
रससिक्त।