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"विलक्षण कवि शरद बिलौरे (राजेश जोशी) / शरद बिलौरे" के अवतरणों में अंतर

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शरद बिल्लौरे आठवें दशक के उत्तरार्ध का सबसे अधिक संभावनाओं से भरा कवि था। हर जगह उसमें लोगों से अपनापा बना लेने का विलक्षण गुण था। उसकी कविता की आत्मीयता वस्तुतः उसके व्यक्तित्व का ही कविता में रूपान्तरण है। गाँव के अपने निजी अनुभवों को कविता में रूपान्तरित करते हुए १९७४-७५ के आसपास उसने कविता लिखना शुरू किया था। उसकी प्रारम्भिक कविताओं में भी एक सहज और स्वयंस्फूर्त वर्ग-चेतना थी, जिसका विकास आगे चलकर एक प्रतिबद्ध कविता में हुआ।
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'''शरद बिलौरे:
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जन्म १९ अक्तूबर १९५५ रहटगाँव, ज़िला होशंगाबाद में। वहीं सरकारी स्कूल में
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प्रारम्भिक शिक्षा। भोपाल के क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय से स्नातक। १९७५-७६
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में भोपाल विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम०ए०। तपेदिक के कारण कुछ
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समय भोपाल के टी०बी० अस्पताल में भरती रहे। कई निजी और स्वायत्तशासी
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संस्थाओं में अध्यापक और क्लर्क के रूप में कार्य किया। १९७९ में अध्यापक के
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पद पर अरूणांचल प्रदेश में नियुक्ति। गाँव लौटते हुए 'लू'लगने के कारण ३ मई
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१९८० को कटनी अस्पताल में मृत्यु।
  
उसकी कविता गहरे और सघन लयात्मक संवेदन की कविता है। जीवन की भटकन और कठिन संघर्षों को रचनात्मक कौशल और व्यस्क होती स्पष्ट वैचारिक दृष्टि के साथ कविता और कविता की विविधता में बदलती कविता। लोक-विश्वासों और लोक-मुहावरों को नए सन्दर्भ में व्याख्यायित करती। तीव्र आवेग और खिलंदड़ेपन के साथ ही गहरी आत्मीयता और सामाजिक विसंगतियों से उपजे विक्षोभ और करुणा की कविता।
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शरद बिल्लौरे आठवें दशक के उत्तरार्ध का सबसे अधिक संभावनाओं से भरा कवि था।
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हर जगह उसमें लोगों से अपनापा बना लेने का विलक्षण गुण था। उसकी कविता की  
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आत्मीयता वस्तुतः उसके व्यक्तित्व का ही कविता में रूपान्तरण है। गाँव के अपने
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कविता लिखना शुरू किया था। उसकी प्रारम्भिक कविताओं में भी एक सहज और  
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स्वयंस्फूर्त वर्ग-चेतना थी, जिसका विकास आगे चलकर एक प्रतिबद्ध कविता में हुआ।
  
उसकी कविता अभी प्रक्रिया में थी, अपनी पहचान और अपने मुहावरे को अर्जित करने की प्रक्रिया में, लेकिन एक महत्त्वपूर्ण कविता की पूरी सम्भावनाएँ उसमें मौज़ूद थीं।
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उसकी कविता गहरे और सघन लयात्मक संवेदन की कविता है। जीवन की भटकन और
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कठिन संघर्षों को रचनात्मक कौशल और व्यस्क होती स्पष्ट वैचारिक दृष्टि के साथ कविता
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और कविता की विविधता में बदलती कविता। लोक-विश्वासों और लोक-मुहावरों को नए
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और सामाजिक विसंगतियों से उपजे विक्षोभ और करुणा की कविता।
  
उसकी सौ से अधिक कविताओं में से चुनी हुई चवालिस कविताएँ इस संग्रह में ली गई हैं। इसके अतिरिक्त एक नाटक "अमरू का कुर्ता" भी उसने लिखा था जिसे अन्तिम स्वरूप देने का अवसर उसे नहीं मिला।
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उसकी कविता अभी प्रक्रिया में थी, अपनी पहचान और अपने मुहावरे को अर्जित करने की
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प्रक्रिया में, लेकिन एक महत्त्वपूर्ण कविता की पूरी सम्भावनाएँ उसमें मौज़ूद थीं।
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उसकी सौ से अधिक कविताओं में से चुनी हुई चवालिस कविताएँ इस संग्रह में ली गई हैं।  
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इसके अतिरिक्त एक नाटक "अमरू का कुर्ता" भी उसने लिखा था जिसे अन्तिम स्वरूप देने  
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का अवसर उसे नहीं मिला।
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21:26, 7 जनवरी 2009 के समय का अवतरण

शरद बिलौरे:
जन्म १९ अक्तूबर १९५५ रहटगाँव, ज़िला होशंगाबाद में। वहीं सरकारी स्कूल में
प्रारम्भिक शिक्षा। भोपाल के क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय से स्नातक। १९७५-७६
में भोपाल विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम०ए०। तपेदिक के कारण कुछ
समय भोपाल के टी०बी० अस्पताल में भरती रहे। कई निजी और स्वायत्तशासी
संस्थाओं में अध्यापक और क्लर्क के रूप में कार्य किया। १९७९ में अध्यापक के
पद पर अरूणांचल प्रदेश में नियुक्ति। गाँव लौटते हुए 'लू'लगने के कारण ३ मई
१९८० को कटनी अस्पताल में मृत्यु।

शरद बिल्लौरे आठवें दशक के उत्तरार्ध का सबसे अधिक संभावनाओं से भरा कवि था।
हर जगह उसमें लोगों से अपनापा बना लेने का विलक्षण गुण था। उसकी कविता की
आत्मीयता वस्तुतः उसके व्यक्तित्व का ही कविता में रूपान्तरण है। गाँव के अपने
निजी अनुभवों को कविता में रूपान्तरित करते हुए १९७४-७५ के आसपास उसने
कविता लिखना शुरू किया था। उसकी प्रारम्भिक कविताओं में भी एक सहज और
स्वयंस्फूर्त वर्ग-चेतना थी, जिसका विकास आगे चलकर एक प्रतिबद्ध कविता में हुआ।

उसकी कविता गहरे और सघन लयात्मक संवेदन की कविता है। जीवन की भटकन और
कठिन संघर्षों को रचनात्मक कौशल और व्यस्क होती स्पष्ट वैचारिक दृष्टि के साथ कविता
और कविता की विविधता में बदलती कविता। लोक-विश्वासों और लोक-मुहावरों को नए
सन्दर्भ में व्याख्यायित करती। तीव्र आवेग और खिलंदड़ेपन के साथ ही गहरी आत्मीयता
और सामाजिक विसंगतियों से उपजे विक्षोभ और करुणा की कविता।

उसकी कविता अभी प्रक्रिया में थी, अपनी पहचान और अपने मुहावरे को अर्जित करने की
प्रक्रिया में, लेकिन एक महत्त्वपूर्ण कविता की पूरी सम्भावनाएँ उसमें मौज़ूद थीं।

उसकी सौ से अधिक कविताओं में से चुनी हुई चवालिस कविताएँ इस संग्रह में ली गई हैं।
इसके अतिरिक्त एक नाटक "अमरू का कुर्ता" भी उसने लिखा था जिसे अन्तिम स्वरूप देने
का अवसर उसे नहीं मिला।
--राजेश जोशी