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विविधा / गुलाब खंडेलवाल

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कभी वसंत इधर से निकल गया होगा
पलाश-दग्ध अभी तक पुकारता हूँ मैं
चाँद जो छोड़ गया नील गगन को उसका
अदृश्य बिम्ब चतुर्दिक् निहारता हूँ मैं
 
झनझनाया जहाँ सितार तुम्हारे स्वर का
आज हर ईंट वहाँ की मुझे बुलाती है
उर्वशी लौट गयी स्वर्गपुरी को लेकिन 
पुरुरवा मैं कि मुझे नींद नहीं आती है