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Kavita Kosh से
पूछते हो तो सुनो, कैसे बसर होती है
रात खैरात की, सदके की सहर होती है
साँस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब
दिल ही दुखता है, न अब आस्तीं तर होती है
जैसे जागी हुई आँखों में, चुभें काँच के ख्वाब
रात इस तरह, दीवानों की बसर होती है
गम ही दुश्मन है मेरा गम ही को दिल ढूँढता है
एक लम्हे की ज़ुदाई भी अगर होती है
एक मर्कज़ की तलाश, एक भटकती खुशबू
कभी मंज़िल, कभी तम्हीदे-सफ़र होती है
दिल से अनमोल नगीने को छुपायें तो कहाँ
बारिशे-संग यहाँ आठ पहर होती है
काम आते हैं न आ सकते हैं बेज़ाँ अल्फ़ाज़
तर्ज़मा दर्द की खामोश नज़र होती है
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