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विश्वास का रबाब(कविता) / अरुण कुमार नागपाल

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सहज नहीं हूँ मैं
बहुत कुछ घट रहा है मेरे भीतर
बन रहा है बहुत कुछ
तो कुछ टूट भी रहा है

जैसे चल रही है कोई वर्कशॉप बराबर
क्या निर्माण औ’ विघटन
दो समानांतर प्रक्रियाएँ हैं?
टूट रहा है जो, उसे बचाना है

आस्थाओं ,आशाओं, मानवीय मूल्यों, परंपराओं को
संभालना है, सहेजना है.
देना भी तो है कुछ आने वाली पीढ़ियों को
विश्वास का रबाब बजेगा
यह विश्वास है अटल
जैसे मेरी कविता है प्रतीक विश्वास का.