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‘ऐलमा पैलमा’ की धुन पर
खेल खेलती हैं लड़कियाँ
और बिना पगचाप किए
लौट जाते हैं स्वप्न
प्रेम व प्रार्थना को संग लिए

वे खो देती हैं अपने ठौर-ठिकाने
फिर रेती के घरौंदे गढ़ते हुए
दिन-ब-दिन
और भी दुश्वार होता जाता है
स्याही व क़लम का मेल

बीतते जाते समय के साथ
वे दिखाई देने लगती हैं
हूबहू अपनी मांँओं की तरह
और माँएँ
उनकी माँओं-सी
जिसकी कड़ियाँ पीछे-पीछे जाती हुई
बिला जाती हैं अन्धेरे में
एक-से साँचे में
सटीक बैठी हुई

स्त्री व ज़मीन
होती हैं अपनी जागीर
इस ठसक में रहनेवाले इस संसार में
वे बनती हैं
किसी की ख़ातिर
बेरंग मटमैली चादर
जब चाहो ओढ़ लो
न चाहो फेंक दो

बनती हैं वे
घर-आँगन, रस्सी-खूँटी
और ताकती रहती हैं चुपचाप
दर्पण की ओट में
घोंसला बुनती चिड़िया को
खदेड़े जाते हुए

पानी से अलगाये पौधों के पत्ते-सी
कुम्हलाई हुई वे फिर
बुनती हैं अदीठ कोई घोंसला
अपनी ही कल्पना की ज़मीन पर
रचाती हैं
मन-ही-मन
झूठ-मूठ का घर-घर का खेल
और रूखी आँखों से
फेर लेती हैं पीठ
बहती हवा पर ढील देकर
पतंग उड़ाने की
हर एक सम्भावना से

मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा