भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"वैराग्य के सभी सूत्र मैंने घोट डाले / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह=एक चन्द्रबिम्ब ठहरा हुआ…) |
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 12: | पंक्ति 12: | ||
पर प्राणों की जलन बुझ नहीं पाती है. | पर प्राणों की जलन बुझ नहीं पाती है. | ||
हीरे को ज्यों-ज्यों छीलता हूँ, | हीरे को ज्यों-ज्यों छीलता हूँ, | ||
− | उस पर और भी | + | उस पर और भी चमक चढ़ती जाती है, |
मिसरी को जितना ही धोता हूँ | मिसरी को जितना ही धोता हूँ | ||
− | मधुरता उतनी ही बढ़ती जाती है. | + | मधुरता उतनी ही बढ़ती जाती है. |
नाव तो कहाँ से कहाँ चली आयी | नाव तो कहाँ से कहाँ चली आयी | ||
पर नाविक अभी तीर पर ठहरा है | पर नाविक अभी तीर पर ठहरा है | ||
− | ज्यों-ज्यों भुजायें शिथिल हुई जाती | + | ज्यों-ज्यों भुजायें शिथिल हुई जाती हैं |
लगता है, सागर अधिकाधिक गहरा है | लगता है, सागर अधिकाधिक गहरा है | ||
<poem> | <poem> |
01:55, 17 जुलाई 2011 का अवतरण
वैराग्य के सभी सूत्र मैंने घोट डाले
फिर भी मन की यह मीठी पीर नहीं जाती है.
गंगा की धारा में अगणित गोते लगा लिए,
पर प्राणों की जलन बुझ नहीं पाती है.
हीरे को ज्यों-ज्यों छीलता हूँ,
उस पर और भी चमक चढ़ती जाती है,
मिसरी को जितना ही धोता हूँ
मधुरता उतनी ही बढ़ती जाती है.
नाव तो कहाँ से कहाँ चली आयी
पर नाविक अभी तीर पर ठहरा है
ज्यों-ज्यों भुजायें शिथिल हुई जाती हैं
लगता है, सागर अधिकाधिक गहरा है