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"वैराग्य-संदीपनी / भाग ३ / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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शान्ति - वर्णन

रैनि को भूषन इंदु है, दिवस को भूषन भानु,
दास को भूषन भक्ति है, भक्ति को भूषन भानु [४३]

ज्ञान को भूषन ध्यान है,ध्यान को भूषन त्याग
त्याग को भूषन शान्ति पद, तुलसी अमल अदाग [४४]

अमल अदाग शान्तिपद सारा,
सकल कलेस न करत प्रहारा।
तुलसी उर धारै जो कोई,
रहै अनन्द सिन्धु मंह सोई॥ [४५] [चौपाई]

बिबिध पाप सम्भव जो तापा,
मिटहिं दोष दुःख दुसह कलापा।
परम सांति सुख रहै समाई,
तहॉं उत्पात न भेदै आई॥ [४६] [चौपाई]

तुलसी ऐसे सीतल संता,
सदा रहै एहि भांति एकन्ता।
कहा करै खल लोग भुजंगा,
कीन्हौ गरल - सील जो अंगा॥ [४७] [चौपाई]

अति सीतल अति ही अमल, सकल कामना हीन
तुलसी ताहि अतीत गनि, बृत्ति सांति लयलीन [४८]

जो कोई कोप भरे मुख बैना,
सन्मुख हतै गिरा - सर पैना।
तुलसी तऊ लेस रिस नाहीं,
सो सीतल कहिये जग माहीं॥ [४९] [चौपाई]

सात दीप नव खंड लौ, तीनि लोक जग मांहि
तुलसी सांति समान सुख, अपर दूसरो नाहिं [५०]

जहाँ सांति सतगुरु की दई,
तहॉं क्रोध की जर जरी गई.
सकल काम बासना बिलानी,
तुलसी बहै सांति सहिदानी [५१] [चौपाई]

तुलसी सुखद सांति को सागर,
संतान गायो कारन उजागर.
तामें तन मन रहै समोई ,
अहम् अगिनि नहिं दाहै कोई [५२] [चौपाई]

अहंकार की अगिनि में,दहत सकल संसार
तुलसी बांची संतजन, केवल सांति आधार [५३]

महा सांति जल पारसी कै, संतभये जन जोई,
अहम् अगिनि ते नहिं दहें, कोटि करें जो कोई [५४]

तेज होत तन तरनी को, अचरज मानत लोई,
तुलसी जो पानी भया, बहुरि न पावक होई [५५]

जद्यपि सीतल सम सुखद, जग में जीवन प्राण
तदपि सांति जल जनि गनौ, पावक तेज प्रमाण [५६]

जरै बरे अरु खीज खिजावे,
राग द्वेष मंह जनम गँवावे।
सपनेहूँ सांति नहिं उन देही,
तुलसी जहाँ - जहों ब्रत येही॥ [५७] [चौपाई]

सोई पंडित सोई पारखी, सोई संत सुजान,
सोई सूर सचेत सो, सोई सुभट प्रमान [५८]

सोई ज्ञानी सोई गुनी जन, सोई दाता ध्यानी
तुलसी जाके चित भई , राग द्वेष की हानि [५९]

राग द्वेष की अगिनि बुझानी
काम क्रोध बासना नसानी।
तुलसी जबहिं सांति गृह आई,
तब उरहीं उर फिरि दोहाई॥ [६०] [चौपाई]

फिरी दोहाई राम की, गे कामादिक भाजि,
तुलसी ज्यों रबि के उदय, तुरत जात तम लाजि [६१]

यह बिराग संदीपनी, सुजन सुचित सुनि लेहु,
अनुचित बचन बिचारि के, जस सुधारि तस् देहु [६२]