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वै लाटी, म्येरि पाटी / विजय गौड़

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वै लाटी, म्येरि पाटी। 
झणि कख हर्चि तू?
झणि कब ह्वै छाँटि?
वै लाटी, म्येरि पाटी ।

मै आज बि याद च व इस्कूल जाणै पैलि रात,
त्येरि व गोरि उजलि गात,
ज्व मिन त्वै स्ये बिन पुछ्याँ इ झ्वलण्या कै द्ये।
कथ्गा अलग छै तू मनख्यों से,
जौंमा सफ़ेद हूणा कि होड़ लगीं च,
एक तू छै जू यूंकि सबेर खुणि,
अफु रात होंदि गै।
तू रोज कलेणि रै,
पण हौरूमा त्वैन उज्यळु इ बाँटि।
वै लाटी, म्येरि पाटी ।

तू, बुल्ख्या अर वा बाँसै कलम,
म्येरा बालापन क पैला दगड्या छाया,
मि त्वै छोड़ि उब उब जान्दु गौं,
पण तु कबि किलस्ये नि छै। 
तिन मी जना झणि कथगा उबुखण धंगल्येनि,
झ्वालु, तेल, कमेड़ु चाटी,
वै लाटी, म्येरि पाटी ।

आज बगत यनु बि  ऐ ग्ये कि 
अब त्वै क्वी पुछदु नि, नयु जमनु त्वै जणदू नि,
पण यूँ थैं क्य पता कि,
जौं पैंसों न आज त्येरि सौत कॉपी, कम्प्यूटर अईं च,
वा कमौणे तमीज़ यूँका बुबों त्वैनि सिखईं च। 
मै कु आज बि तू उथ्गा इ अपड़ि छै,
जथगा मेरु पाड़, पाणि, हवा, माटी,
वै लाटी, म्येरि पाटी।