"वो आँख ज़बान हो गई है / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी |संग्रह=गुले-नग़मा / फ़िराक़ ग...) |
|||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
{{KKCatGhazal}} | {{KKCatGhazal}} | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | |||
वो आँख ज़बान हो गई है | वो आँख ज़बान हो गई है | ||
हर बज़्म की जान हो गई है। | हर बज़्म की जान हो गई है। | ||
पंक्ति 17: | पंक्ति 18: | ||
अब तो तेरी हर निगाहे-काफ़िर, ईमान की जान हो गयी है। | अब तो तेरी हर निगाहे-काफ़िर, ईमान की जान हो गयी है। | ||
− | तरग़ीबे-गुनाह<ref>पाप की ओर उकसाना</ref> लहज़ह-लहज़ह | + | तरग़ीबे-गुनाह<ref>पाप की ओर उकसाना</ref> लहज़ह-लहज़ह<ref>क्षण-प्रतिक्षण</ref>, अब रात जवान हो गयी है। |
तौफ़ीके - नज़र से मुश्किले-ज़ीस्त, कितनी आसान हो गयी है। | तौफ़ीके - नज़र से मुश्किले-ज़ीस्त, कितनी आसान हो गयी है। | ||
+ | तस्वीरे-बशर है नक़्शे-आफ़ाक<ref>विश्व का प्रतीक</ref>, फ़ितरत<ref>प्रकृति</ref> इंसान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | पहले वो निगाह इक किरन थी, अब इक जहान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | सुनते हैं कि अब नवा-ए-शाएर<ref>कवि की वाणी</ref>,सहरा की अज़ान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | ऐ मौत बशर की ज़िन्दगी आज, तेरा एहसान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | कुछ अब तो अमान हो कि दुनिया, कितनी हलकान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | य़े किसकी पड़ी ग़लत निगाहें, हस्ती बुहतान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | इन्सान को ख़रीदता है इन्सान, दुनिया भी दुकान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | अक्सर शबे-हिज़्र दोस्त की याद, तनहाई की जान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | शिर्कत तेरी बज़्मे-क़िस्सागो<ref>कहानी सुनाने वालों की सभा</ref> में,अफ़्साने की जान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | जो आज मेरी ज़बान थी, कल, दुनिया की ज़बान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | इक सानिहा-ए-जहाँ है वो आँख, जिस दिन से जवान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | दिल में इक वार्दाते-पिनहाँ<ref>आन्तरिक घटना</ref>, बेसान गुमान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | सुनता हूँ क़ज़ा-ए-कह्रमाँ भी, अब तो रहमान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | वाएज़ मुझे क्या ख़ुदा से, मेरा ईमान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | मेरी तो ये कायनाते-ग़म भी, जानो-ईमान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | मेरी हर बात आदमी की, अज़मत<ref>महत्ता</ref> का निशान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | यादे-अय्यामे-आशिक़ी अब, अबदीयत इक आन हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | जो शोख़ नज़र थी दुश्मने-जाँ, वो जान की जान हो गयी है। | ||
+ | |||
+ | हर बैत<ref>पंक्ति</ref> ’फ़िराक़’ इस ग़ज़ल की | ||
+ | अबरू की कमान हो गयी है। | ||
{{KKMeaning}} | {{KKMeaning}} | ||
</poem> | </poem> |
00:00, 10 सितम्बर 2009 का अवतरण
वो आँख ज़बान हो गई है
हर बज़्म की जान हो गई है।
आँखें पड़ती है मयकदों की, वो आँख जवान हो गयी है।
आईना दिखा दिया ये किसने, दुनिया हैरान हो गयी है।
उस नरगिसे-नाज़ में थी जो बात, शाएर की ज़बान हो गयी है।
अब तो तेरी हर निगाहे-काफ़िर, ईमान की जान हो गयी है।
तरग़ीबे-गुनाह<ref>पाप की ओर उकसाना</ref> लहज़ह-लहज़ह<ref>क्षण-प्रतिक्षण</ref>, अब रात जवान हो गयी है।
तौफ़ीके - नज़र से मुश्किले-ज़ीस्त, कितनी आसान हो गयी है।
तस्वीरे-बशर है नक़्शे-आफ़ाक<ref>विश्व का प्रतीक</ref>, फ़ितरत<ref>प्रकृति</ref> इंसान हो गयी है।
पहले वो निगाह इक किरन थी, अब इक जहान हो गयी है।
सुनते हैं कि अब नवा-ए-शाएर<ref>कवि की वाणी</ref>,सहरा की अज़ान हो गयी है।
ऐ मौत बशर की ज़िन्दगी आज, तेरा एहसान हो गयी है।
कुछ अब तो अमान हो कि दुनिया, कितनी हलकान हो गयी है।
य़े किसकी पड़ी ग़लत निगाहें, हस्ती बुहतान हो गयी है।
इन्सान को ख़रीदता है इन्सान, दुनिया भी दुकान हो गयी है।
अक्सर शबे-हिज़्र दोस्त की याद, तनहाई की जान हो गयी है।
शिर्कत तेरी बज़्मे-क़िस्सागो<ref>कहानी सुनाने वालों की सभा</ref> में,अफ़्साने की जान हो गयी है।
जो आज मेरी ज़बान थी, कल, दुनिया की ज़बान हो गयी है।
इक सानिहा-ए-जहाँ है वो आँख, जिस दिन से जवान हो गयी है।
दिल में इक वार्दाते-पिनहाँ<ref>आन्तरिक घटना</ref>, बेसान गुमान हो गयी है।
सुनता हूँ क़ज़ा-ए-कह्रमाँ भी, अब तो रहमान हो गयी है।
वाएज़ मुझे क्या ख़ुदा से, मेरा ईमान हो गयी है।
मेरी तो ये कायनाते-ग़म भी, जानो-ईमान हो गयी है।
मेरी हर बात आदमी की, अज़मत<ref>महत्ता</ref> का निशान हो गयी है।
यादे-अय्यामे-आशिक़ी अब, अबदीयत इक आन हो गयी है।
जो शोख़ नज़र थी दुश्मने-जाँ, वो जान की जान हो गयी है।
हर बैत<ref>पंक्ति</ref> ’फ़िराक़’ इस ग़ज़ल की
अबरू की कमान हो गयी है।