भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"वो इक दरख़्त है दोपहर में झुलसता हुआ / ज्ञान प्रकाश विवेक" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक |संग्रह=गुफ़्तगू अवाम से है /...)
 
 
पंक्ति 16: पंक्ति 16:
  
 
मैं जा रहा हूँ हमेशा के वास्ते घर से
 
मैं जा रहा हूँ हमेशा के वास्ते घर से
पता नहीं मुझे लगता है कुछ उजड़ता हुआ.
+
पता नहीं मुझे लगता है कुछ उजड़ता हुआ
 +
 
 +
वो कोई और नहीं दोस्तो अँधेरा है
 +
दीयासिलाई जला कर खड़ा है हँसता हुआ..
 
</poem>
 
</poem>

14:19, 8 दिसम्बर 2008 के समय का अवतरण

वो इक दरख़्त है दोपहर में झुलसता हुआ
खड़ा हुआ है नमस्कार फिर भी करता हुआ

मैं अपने आपसे आया हूँ इस तरह बाहर
कि जैसे चोर दबे-पाँव हो निकलता हुआ

वो आसमन का टूटा हुआ सितारा था
जो आ पड़ा है मेरी जेब में उछलता हुआ

मैं जा रहा हूँ हमेशा के वास्ते घर से
पता नहीं मुझे लगता है कुछ उजड़ता हुआ

वो कोई और नहीं दोस्तो अँधेरा है
दीयासिलाई जला कर खड़ा है हँसता हुआ..