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वो ज़िन्दा लाशें / बाल गंगाधर 'बागी'

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कितने लोग धड़कनों में ढह गये
कितने कपड़े बदन पे कफ़न बन गये
कितनी लाशें पंछियों के भेंट चढ़ गयीं
कितने नालों के दलदल मंे जम गये

वो ज़िन्दा लाशें हमारे बुजुर्गों की थीं
जिन्हें गिद्धों ने खाया था बड़े चांव से
वो नंगी लाशें मेरे माँ व बहनों की थीं
बांधा देवदासी का घुंघरू जिनके पांव में

उनके बदन पे नाखूनों के कई घाव थे
जिनके सुर पे बदनामी थे कई गांव के
फुसफुसाती हवायें हो जहाँ लाज में
वे ऐसे जलते गये बेबसी की छांव में

फटे कपड़े में जब लाज ढकती हैं वह
उनकी आंखें कड़ककरे घुसती हैं तब
जिसने सदियों नचाया मेरी माँ को
वो गुत्थी नहीं सुलझी है आज तक

बुझे रौशन दिये गम की बरसात में
ऐसी सदियां गुजरती गयीं रात में
बादल बनके छाया सुबह की किरन
ताकि कोई सुबह न हो मेरी आंख में

उम्मीद की किरने शाम में खो गई
कितनी आंखें तड़पती नहीं रो सकीं
उनके खेतों में हल बैल चलते मेरे
भरी जवानी गुलामी में खोती गई...