भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

व्यक्तित्त्व / बरीस पास्तेरनाक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:39, 14 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बरीस पास्तेरनाक |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <Poem> क़लम में एक …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क़लम में एक जानवर की तरह, मैं कट गया हूँ
अपने दोस्तों से, आज़ादी से, सूर्य से
लेकिन शिकारी हैं कि उनकी पकड़ मज़बूत होती चली जा रही है।
मेरे पास कोई जगह नहीं है दौड़ने की
घना जंगल और ताल का किनारा
एक कटे हुए पेड़ का तना
न आगे कोई रास्ता है और न पीछे ही
सब कुछ मुझ तक ही सिमट कर रह गया है।
क्या मैं कोई गुंडा हूँ या हत्यारा

या कौन सा अपराध किया है मैंने
मैं निष्कासित हूँ? मैंने पूरी दुनिया को रुलाया है
अपनी धरती के सौन्दर्य पर
इसके बावजूद, एक क़दम मेरी क़ब्र से
मेरा मानना है कि क्रूरता, अँधियारे की ताक़त
रौशनी की ताक़त के आगे
टिक नहीं पाएगी।

कातिल घेरा कसते जा रहे हैं
एक ग़लत शिकार पर निगाहें जमाये
मेरी दाईं तरफ़ कोई नहीं है
न कोई विश्वसनीय और न ही सच्चा

और अपने गले में इस तरह के फंदे के साथ
मैं चाहूँगा मात्र एक पल के लिए
मेरे आँसू पोंछ दिए जाएँ
मेरी दाईं तरफ़ खड़े किसी शख़्स के द्वारा