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"शब्दों की पीढियां / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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चकाचौंध निकिल
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कायांतरित करती जा रही है
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श्यामल अतीत को
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कुष्ठग्रस्त वर्तमान में
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अच्छे आदमी की तरह
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जो शब्द नहीं रहे,
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चलते-चलते
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व्यस्त चौराहों पर,
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आत्महत्या कर बैठे
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प्रताड़ित नव-ब्याहताओं
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की तरह,
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राख चाट बैठे
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फटते बारूदों पर
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अपाहिज मकानों की तरह,
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उन्हें फिर से जिलाया जा रहा है
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बिजली का झटका देकर,
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झनझनाया जा रहा है
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विस्फोटक फिल्मी म्युजिक की तरह,
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सरेआम नचाया जा रहा है
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जानबूझकर नंगी घूम रही
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बेशर्म औरतों की तरह,
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नुमाइश बनाया जा रहा है
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खिड़कियाँ झांक रही
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लाइसेंसधारी
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शरीफ वेश्याओं की तरह
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हां! ये शब्द
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अपने पितामहों की
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भभूत लपेटे
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हवाई पोशाक पहने ,
 +
याद दिलाते हैं उनकी
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जिनकी वर्षगाँठ मनाई जाती है
 +
लाल किले पर चढ़कर
 +
झंडे फहराकर
 +
रंगीन गुब्बारे उड़ाकर
 +
दमघोटू आसमान में.

12:42, 21 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण

शब्दों की पीढ़ियाँ

एक अरसे से
शब्दों की
बदलती हुई पीढ़ियाँ
तलाश रही हैं
आदमकद मायने

इस तलाश में
जेबकतरे अर्थ की
लिबास में
शब्द शब्द नहीं रहे,
तिरंगे मुखौटे पहन
विदेशी तहजीब में
वे समझाते हैं--
इतर-पुते अर्थ
जिसके सम्मोहनी
इंद्रजाल में
होश खोती जा रही हैं
बुरके ओढ़ी
शब्दाभ्यांतर की सांस्कृतिक
संकल्पनाएँ,
जिन पर चढ़ती
परत-दर-परत
शैतानी तहजीब की
चकाचौंध निकिल
कायांतरित करती जा रही है
श्यामल अतीत को
कुष्ठग्रस्त वर्तमान में

च्च, च्च, च्च, च्च!
अच्छे आदमी की तरह
जो शब्द नहीं रहे,
चलते-चलते
दुर्घटनाग्रस्त हो गए
व्यस्त चौराहों पर,
आत्महत्या कर बैठे
प्रताड़ित नव-ब्याहताओं
की तरह,
राख चाट बैठे
फटते बारूदों पर
अपाहिज मकानों की तरह,
उन्हें फिर से जिलाया जा रहा है
बिजली का झटका देकर,
झनझनाया जा रहा है
विस्फोटक फिल्मी म्युजिक की तरह,
सरेआम नचाया जा रहा है
जानबूझकर नंगी घूम रही
बेशर्म औरतों की तरह,
नुमाइश बनाया जा रहा है
खिड़कियाँ झांक रही
लाइसेंसधारी
शरीफ वेश्याओं की तरह

हां! ये शब्द
अपने पितामहों की
भभूत लपेटे
हवाई पोशाक पहने ,
याद दिलाते हैं उनकी
जिनकी वर्षगाँठ मनाई जाती है
लाल किले पर चढ़कर
झंडे फहराकर
रंगीन गुब्बारे उड़ाकर
दमघोटू आसमान में.