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शब्बो / मनोज श्रीवास्तव

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शब्बो

शब्बो देर रात तक
देह-मर्दन कराती-कराती
कब सो गई,
काम अधूरा छोड़
नींद में कब खो गई,
--उसे खुद पता नहीं चला
 
जब खुर्राटेदार पुकार बाई की
सुनकर वह हड़बड़ा कर जगी
तो वह रह गई--ठगी की ठगी
क्योंकि बेशर्म सूरज
उसे घूर-घूर देख रहा था
अपनी कैक्टसी किरणों से
उसके नंगे जिस्म को
भेद रहा था

तभी वह कमरे की भांय-भांय से
टपक रही आश्चर्य की ठंडी बूंदों से
सिहर-सिहर गई क्योंकि
उसने खुद को एकदम अकेला पाया था,
वह खूंसट आदमी
उसकी फ़िज़ूल यादों में
कुछ बदबूदार मर्दानी बातों का
धुंआ छोड़
उसका ब्लाउज
अपना रुमाल समझ
लेता गया था

अभी वह जिस्म की बिखरी बोटियाँ
यत्र-तत्र पड़ी दो सौ छ: हड्डियां
बटोर-समेट ही रही थी
कि बाई की फिर बारूदी फटकार
'कहां मर गई रंडी'
के साथ ही
एक नया ग्राहक
अधिकारपूर्वक अन्दर आया था
और साथ में
अपना सांड़-सा जिस्म भी
लाया था

'भेड़िए मर्द' बुदबुदाते हुए
और 'बैठी आती हूँ' का
शिष्ट स्वांग करते हुए
वह औरताना लहजे में उठी,
शौचालय गई
कराहती हुई
आईने से मुखातिब हुई
झूठ-मूठ मुस्कराने की
कोशिश करती रही
फिर, अंगडाई ले
पेशियों में टींस जोहती
चाय को कडुआ तेल-सी घोंटती
वह कास्मेटिक पिटारे पर झुकी
पिचपिचाई आँखों में मोटा काजल आंजा
होठों की दरारों में लिपस्टिक भरा
ढेर-सारे स्नो-पावडर से
थुकाथुकाए गालों को चिकनाया
दांत-गड़े दागों को मिटाया
फिर, आईने में
खुद को आँख मार जम्हाई ली
पर, सांस की पाखानेदार बास से
घबराई नहीं,
उसने झटपट
मुट्ठी-भर माउथ-फ्रेशनर भकोसा
और वह आश्वस्त हो गई कि
वह एकदम तैयार है
अपनी ड्यूटी बजाने के लिए

वह इलाइची-पान की डिबिया ले
ग्राहक से रू-ब-रू हुई
फिर, शाम होने तक
बड़े निष्ठा-भाव से
तवे पर सिंकती रोटी जैसी
उलट-पलट होती रही
जुम्बिश करती रही
जैसेकि पेंडुलम के धक्के से
घड़ी के सारे दांतेदार पहिए
सलीके से हिलते हैं.