भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"शरद की साँझ के पंछी / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय }} ऊपर फैला है आकाश, भरा तारों से भार-मुक्...)
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=अज्ञेय
 
|रचनाकार=अज्ञेय
}}  
+
}}
 +
<poem>
 
ऊपर फैला है आकाश, भरा तारों से
 
ऊपर फैला है आकाश, भरा तारों से
 
 
भार-मुक्त से तिर जाते हैं  
 
भार-मुक्त से तिर जाते हैं  
 
 
पंछी डैने बिना फैलाये ।  
 
पंछी डैने बिना फैलाये ।  
 
 
जी होता है मैं सहसा गा उठूँ  
 
जी होता है मैं सहसा गा उठूँ  
 
 
::उमगते स्वर  
 
::उमगते स्वर  
 
 
::जो कभी नहीं भीतर से फूटे  
 
::जो कभी नहीं भीतर से फूटे  
 
 
::कभी नहीं जो मैं ने -  
 
::कभी नहीं जो मैं ने -  
 
 
::कहीं किसी ने - गाये ।  
 
::कहीं किसी ने - गाये ।  
 
 
  
 
किन्तु अधूरा है आकाश  
 
किन्तु अधूरा है आकाश  
 
 
::हवा के स्वर बन्दी हैं  
 
::हवा के स्वर बन्दी हैं  
 
 
मैं धरती से बँधा हुआ हूँ -  
 
मैं धरती से बँधा हुआ हूँ -  
 
 
::हूँ ही नहीं, प्रतिध्वनि भर हूँ  
 
::हूँ ही नहीं, प्रतिध्वनि भर हूँ  
 
 
जब तक नहीं उमगते तुम स्वर में मेरे प्राण-स्वर  
 
जब तक नहीं उमगते तुम स्वर में मेरे प्राण-स्वर  
 
 
तारों मे स्थिर मेरे तारे,  
 
तारों मे स्थिर मेरे तारे,  
 
 
जब तक नही तुम्हारी लम्बायित परछाहीं  
 
जब तक नही तुम्हारी लम्बायित परछाहीं  
 
 
कर जाती आकाश अधूरा पूरा ।  
 
कर जाती आकाश अधूरा पूरा ।  
 
 
भार-मुक्त
 
भार-मुक्त
 
 
ओ मेरी संज्ञा में तिर जाने वाले पंछी  
 
ओ मेरी संज्ञा में तिर जाने वाले पंछी  
 
 
देख रहा हूँ तुम्हें मुग्ध मैं ।  
 
देख रहा हूँ तुम्हें मुग्ध मैं ।  
 
 
  
 
यह लो :  
 
यह लो :  
 
 
लाली से में उभर चम्पई  
 
लाली से में उभर चम्पई  
 
 
उठा दूज का चाँद कँटीला ।
 
उठा दूज का चाँद कँटीला ।
 +
</poem>

22:09, 3 नवम्बर 2009 का अवतरण

ऊपर फैला है आकाश, भरा तारों से
भार-मुक्त से तिर जाते हैं
पंछी डैने बिना फैलाये ।
जी होता है मैं सहसा गा उठूँ
उमगते स्वर
जो कभी नहीं भीतर से फूटे
कभी नहीं जो मैं ने -
कहीं किसी ने - गाये ।

किन्तु अधूरा है आकाश
हवा के स्वर बन्दी हैं
मैं धरती से बँधा हुआ हूँ -
हूँ ही नहीं, प्रतिध्वनि भर हूँ
जब तक नहीं उमगते तुम स्वर में मेरे प्राण-स्वर
तारों मे स्थिर मेरे तारे,
जब तक नही तुम्हारी लम्बायित परछाहीं
कर जाती आकाश अधूरा पूरा ।
भार-मुक्त
ओ मेरी संज्ञा में तिर जाने वाले पंछी
देख रहा हूँ तुम्हें मुग्ध मैं ।

यह लो :
लाली से में उभर चम्पई
उठा दूज का चाँद कँटीला ।