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शरद की साँझ के पंछी / अज्ञेय

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ऊपर फैला है आकाश, भरा तारों से

भार-मुक्त से तिर जाते हैं

पंछी डैने बिना फैलाये ।

जी होता है मैं सहसा गा उठूँ

उमगते स्वर
जो कभी नहीं भीतर से फूटे
कभी नहीं जो मैं ने -
कहीं किसी ने - गाये ।


किन्तु अधूरा है आकाश

हवा के स्वर बन्दी हैं

मैं धरती से बँधा हुआ हूँ -

हूँ ही नहीं, प्रतिध्वनि भर हूँ

जब तक नहीं उमगते तुम स्वर में मेरे प्राण-स्वर

तारों मे स्थिर मेरे तारे,

जब तक नही तुम्हारी लम्बायित परछाहीं

कर जाती आकाश अधूरा पूरा ।

भार-मुक्त

ओ मेरी संज्ञा में तिर जाने वाले पंछी

देख रहा हूँ तुम्हें मुग्ध मैं ।


यह लो :

लाली से में उभर चम्पई

उठा दूज का चाँद कँटीला ।