भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शहर में बेख़बर / प्रमोद कौंसवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इतने साल हो गए हैं
शायद कोई डेढ़ दशक
और तभी से बंदर
आपस में एक दूसरे के जूं निकालने में ही लगे हैं
सामने की तमाम बालकनियों में
नाख़ून कतर रही हैं व्याधियां
संदूकों और पेटियों में
जूते भरकर घर बदल रहे हैं ख़ानाबदोश
किसी एक आंख से आंसू नहीं टपक रहा है
सड़कों पर लगी आग हो रही फ़ायरिंग
कूड़े और सूखे पत्तों का ये शहर इसके बावजूद

मैंने सोचा था कोई दशक बाद
स्मृतियों का हो जाता है शहर
जहां लौटकर दरोदीवार से लिपट जाएं
लेकिन यह भटकाव में तब्दील था
रात में जो सुनहरा तैरता दिखता
कीचड़ होता था असल में
धूल-धुएं की बात तो
हुई एक बेइलाज़ ज़ख़्म की जैसे ज़माने ज़फ़र की

कुछ मशहूर लोग कहां से किन रास्तों से होकर
गुज़र जाते हैं मैं बेख़बर रहा
सफ़दरजंग के मुर्दाघर के पास खड़े-पड़े
तीमारदारी करते हुए
ओढ़े अपनी ग़रीबी
सिर्फ़ एक कंबल लिए

लेकिन हक़ीक़त तो है अपने को पड़ी
गरज़ यहां आने की
पिछली दफ़ा ग़िरह से छूट गया था सिक्का

उसे निकला खोजने
रोया बहुत रोया तो आए सारे देवता
निकलकर भिड़ने के लिए मुर्दाघर से