भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"शोक / जय गोस्वामी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 19: पंक्ति 19:
 
आज, अगर छीनकर नहीं ला सकते,
 
आज, अगर छीनकर नहीं ला सकते,
 
::::मरघट हुए गाँव !
 
::::मरघट हुए गाँव !
अगर इकट्ठा न कर प्पो, तमाम सूखे हुए आँसू !
+
अगर इकट्ठा न कर पाओ , तमाम सूखे हुए आँसू !
 
अगर... अगर...
 
अगर... अगर...
 
चिनगारी बनकर फट न पड़ें
 
चिनगारी बनकर फट न पड़ें

20:35, 2 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

वह जो माँ है, वो‌‍ऽऽ रही
रोकने की कोशिश कर रही है, अपना बलात्कार;
छाती से कसकर चिपकाए हुए, अपना शिशु !

वो रहे... छीनकर उसकी गोद का बच्चा
मुट्ठी में दबोचकर उसका सिर,
दो-ढाई पेंच मरोड़ और तोड़ दी गरदन !
उछाल दिया, उस चरमर गुड्डे को,
नदी के अतल में !
तुम भी देखते रहे, खड़े-खड़े, मैं भी बना रहा दर्शक

इसके बाद, क्या फ़ायदा किसी के पद-त्याग की मांग से?
आज, अगर छीनकर नहीं ला सकते,
मरघट हुए गाँव !
अगर इकट्ठा न कर पाओ , तमाम सूखे हुए आँसू !
अगर... अगर...
चिनगारी बनकर फट न पड़ें
तमाम स्तम्भित शोक !

बांग्ला से अनुवाद : सुशील गुप्ता