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शोर की बाहों में गीतों का जिस्म पिघलते देखा है / ज़ाहिद अबरोल

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</poem> शोर की बाहों में गीतों का जिस्म पिघलते देखा है क्यूं ख़ामोश रहूं फूलों को आग में जलते देखा है

दौर-ए-मसर्रत<ref>हर्ष, आनन्द का समय </ref> में भी इस को गीत में ढलते देखा है हम ने तेरे ग़म को अक्सर नींद में चलते देखा है

दिल को जैसे डसने लगे हैं इन्द्रधनुष के सातों रंग जब से हम ने तेरी हंसी को दर्द में ढलते देखा है

बादल, आंसू, प्यास, धुआं, अंगारा, शबनम<ref>ओस</ref>, साया, धूप तेरे ग़म को जाने क्या क्या भेस बदलते देखा है

हमने कहना छोड़ दिया है पैसे को अब हाथ की मैल अज़्म-ए-बशर<ref>मनुष्य का निश्चय, संकल्प </ref> को जब से इसकी लौ<ref>लपट</ref> में पिघलते देखा है

‘ज़ाहिद’ इस हठयोगी दिल को हमने अक्सर सुबह-ओ-शाम नंगे पांव ही दर्द के अंगारों पर चलते देखा है

शब्दार्थ
<references/>

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