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सख़्त गीर आका / 'हफ़ीज़' जालंधरी

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एक बे-तुकी नज़्म
आज बिस्तर ही में हूँ
कर दिया है आज
मेरे मुज़्महिल आज़ा ने इज़हार-ए-बग़ावत बर मला
मेरा जिस्म-ए-ना-तावाँ मेरा ग़ुलाम-ए-बा-वफ़ा
वाक़ई मालूम होता है थका हारा हुआ
और मैं
एक सख़्त गीर आक़ा....जमाने का गुलाम
किस क़दर मजबूर हूँ
पेट पूजा के लिए
दो क़दम भी उठ के जा सकता नहीं
मेरे चा कर पाँ शल हैं
झुक गया हूँ इन कमीनों की रज़ा के सामने
सर उठा सकता नहीं
आज बिस्तर ही में हूँ