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|रचनाकार=मैथिलीशरण गुप्त
}}
{{KKCatKavitaKKCatKavita‎}}{{KKPrasiddhRachna}}<poem>सखि, वे मुझसे कहकर जाते,<br>कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?<br><br>
मुझको बहुत उन्होंने माना<br>फिर भी क्या पूरा पहचाना?<br>मैंने मुख्य उसी को जाना<br>जो वे मन में लाते।<br>लाते ।सखि, वे मुझसे कहकर जाते।<br><br>जाते ।
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,<br>प्रियतम को, प्राणों के पण में,<br>हमीं भेज देती हैं रण में -<br>क्षात्र-धर्म के नाते।<br>नाते ।सखि, वे मुझसे कहकर जाते।<br><br>जाते ।
हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,<br>किसपर विफल गर्व अब जागा?<br>जिसने अपनाया था, त्यागा;<br>रहे स्मरण ही आते!<br>सखि, वे मुझसे कहकर जाते।<br><br>जाते ।
नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,<br>पर इनसे जो आँसू बहते,<br>सदय हृदय वे कैसे सहते?<br>गये तरस ही खाते!<br>सखि, वे मुझसे कहकर जाते।<br><br>जाते ।
जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,<br>दुखी न हों इस जन के दुख से,<br>उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से?<br>आज अधिक वे भाते!<br>सखि, वे मुझसे कहकर जाते।<br><br>जाते ।
गये, लौट भी वे आवेंगे,<br>कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,<br>रोते प्राण उन्हें पावेंगे,<br>पर क्या गाते-गाते?<br>सखि, वे मुझसे कहकर जाते।<br>जाते ।<br/poem>
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