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सच्चाई-2 / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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हाँ, मेरे दोस्त !
अब तुम जो चाहो कहो
कह लो,
कि यह आसमान का चांद
कितना अच्छा है
कितने अच्छे हैं ये सभी तारे
लेकिन मैं जानता हूँ
जानता हूँ कि सच्चाई क्या है ?
-एक दिन
जब मुझे जोरों की भूख लगी थी
और मैं टूट पड़ा था अन्न पर
बिना तुमसे कुछ कहे ही

इसलिए कि मैं जानता था
कि तुमने अभी-अभी खाया है
तुम्हें भूख हो ही नहीं सकती
लेकिन इससे क्या ?
तुम्हें अधिकार है
आदमी और उसकी मेहनत पर
और उसके कमाये अन्न पर
तभी मैंने चाहा था
उसे निगल जाना
तुमसे बिना पूछे ही
और दरकिनार कर दिया था
तुम्हारे अधिकार और अस्तित्व को
यही कारण था
कि तुमने गुस्से में आकर
अन्न से भरी थाली को
मेरी भूखी आँखों के सामने
उठाकर ऊपर उछाल दिया था
सच कहता हूँ
मैं अभी भी भूखी आँखों से
ताक रहा हूँ ऊपर टकटकी लगाये
उस उल्टी थाली और छिरयाये अन्न को
तुम जिसे,
आज भी खुबसूरत चांद और तारे कहते हो।