भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सड़क / अनूप सेठी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनूप सेठी }} <Poem> चींटी चली ले अनाज का दाना दाना तो ...)
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
}}
 
}}
 
<Poem>
 
<Poem>
चींटी चली ले अनाज का दाना
+
{{KKGlobal}}
दाना तो क्या दाना तो चिड़िया ले उड़ती है
+
{{KKRachna
यह था दाने का कण दाने का कोई सौंवा हिस्सा
+
|रचनाकार=अनूप सेठी
पक्की टाइलों के चमकीले फर्श में
+
}}
सुरक्षा और सफाई के कड़े और मुस्तैद इँतजाम में
+
<Poem>
चली ले चींटी अनाज का कण
+
सड़क बहुत चौड़ी और मजबूत बहुत
किस कोने से निकली कमरे के किस कोने में जाती है
+
सीमेंट की सर्द सिल्लियाँ  बेपरवाह
  
कहाँ से मिला होगा दाने का कण
+
नीचे टेलिफोन और बिजली की तारों का जाल
बच्चे की जूठन या मेहमान की लापरवाही
+
पीने के पानी की नालियां
 +
शहर भर की गँदगी के नाले    चलाएमान
 +
ऊपर हर प्रजाति का वाहन
 +
अपनी अपनी आग बुझाने दौड़े जा रहा
  
दाने का कण रोटी का होगा डबलरोटी का
+
अगल-बगल पारदर्शी अपारदर्शी चमचमाती दुकानें
पीजा का या केक का
+
डरावनी स्वागती मुद्रा में
ताजा होगा या बासा कल या परसों का
+
लील जाने को आतुर
या होगा बाजार से आई बनी बनाई किसी और चीज का
+
पान और चाय और मोचियों की टपरियाँ
 +
बीच की खाली जगहों में या  
 +
इनकी वजह से दिखती खाली जगहों में
 +
एक पैर पर खड़ी हुईं
  
होगा अगर गेंहूँ का तो किस दुकान से आया होगा
+
दिन में एक बार तबेलों से निकल कर
सुपर बाजार या छोटे बणिए का
+
उदासी सम्प्रदाय की गाएँ
राशन का होगा या खुले बाजार का
+
जहाँसड़क सम्भ्राँत इलाके से गुजरती है
हरियाणा का या खण्डवा का
+
टहलती हैं, स्थिर हो जाती हैं, पसर जाती हैं
बीज किस सँस्थान में पनपा होगा
+
इतनी बेतकल्लुफी तो इस इलाके की जनानियों को
पुश्तैनी बीज महानगर तो क्या पंहुचेगा
+
किटी, क्लब या पार्लर में भी नहीं नसीब
वैज्ञानिक मगर विदेश जा पँहुचा होगा
+
ज़ाहिर है घर या बाथरूम में तो नहीं ही
क्या पता गेंहूँ आयात वाला हो
+
संसद  गूँजी होगी पहले भी बाद में भी
+
अगर सिर्फ बीज होगा आयातित
+
तो भी लँबा सफर तय किया होगा गेंहूं ने
+
  
न भी तो भी क्या खबर किन किन जहाजों ट्रकों ट्रेक्टरों बोरों में लदा होगा
+
किसी बड़े से बड़े फन्ने खाँ की
गोदामों में ठुँसा होगा
+
ऊँची से ऊँची नाक वाली गाड़ी
हम्मालों मजदूरों के पसीने को
+
मंहगे से मंहगे गराज में नियमित मालिश करवाने के बावजूद
बाबुओं अफसरों नेताओं को नजदीक से निरखा होगा गेंहूं ने
+
सड़क के किसी भी छोर पर कभी भी धरना दे सकती है
  
चींटी को नहीं पता दाने का इतिहास
+
जैसे गायों और गाड़ियों में कोई बहनापा हो
वह तो जिसने खाया उसने भी क्या जाना
+
जैसे यही हैं सत्याग्रहियों की सच्ची वारिस
हांलांकि अखबार  सभी ने पढ़ना सीखा है
+
  
यह भी हो सकता है  दाने का कण
+
यही बचे रह गए हैं इच्छाधारी जीव
उनका न हो जो अब इस मकान में रहते हैं
+
बाकी सब जो है सड़क पर या सड़क के बाहर
वो हो उनका जो रहते थे साल भर पहले या उससे भी पहले
+
है किसी और के इच्छाधीन
अखबारें तो वे भी पढ़ते थे
+
  
उनका भी न हो उन मजदूरों का हो
+
पीठ पीछे कश हॉर्न हैं
जो टाट की टट्टियों में रहते थे
+
ज़मीन को दहलाती घर्र घर्र है
इस आलीशान इमारत को बनाने के वास्ते इसी जगह
+
भाग लो वरना कुचले जाओगे
सिर्फ कँक्रीट  थे रेत बजरी और पत्थर थे और  चूल्हा जलता था
+
सड़क छोड़ घुसोगे घरों में पनाह पाने
विकास की दावानल भड़की है 
+
एक रात से ज्यादा गुज़ार नहीं पाओगे एक बार
महानगरों नगरों कस्बों गांवों तक में
+
बीच सड़क खदेड़े जाओगे बार बार
  
चींटी का  क्या भरोसा
+
हांफते हुए शायद कहीं दिख जाए कभी
निकाल लाई हो नींव की गहराइयों से
+
बरसात के बाद की भीगी हुई सड़क    तस्वीर की मानिंद
जितनी छोटी उतनी खोटी
+
वे अखबार नहीं पढ़ते थे
+
  
क्या पता दाने का यह कण गेंहूं के उस
+
किनारे पर चलते हैं असहाय बूढ़े, हारे हुए नागरिक
ढेर का हिस्सा हो जो मोहनजोदाड़ो की खुदाई में मिला
+
लुटे हुए बदहवास मुसाफिर
और संग्रहालय में रखा है सजाकर काला काला
+
या जो अर्थी को कंधा दे रहे होते हैं
सभ्यता की निशानी अमर
+
बच्चे भी बूढ़े होते हैं यहीं
 +
भविष्य का बोझ लादे हुए
  
अगर यह कण गेंहूँ का न गुड़ का हो
+
सड़क है ऐसी बेमुरव्वत
तो कहां उलझन घट जाएगी
+
निशान कोई छूटता नहीं किसी तरह का  
पर यह चींटी जाती है किस कोने में
+
 
सोच सोच उलझन और बल खाती है।
+
सड़क जिन्होंने बनवाई
                                      (1997)
+
नहीं है सड़क की लगाम उनके भी हाथ में।
 +
 
 +
(1998)
  
 
</poem>
 
</poem>

01:03, 23 जनवरी 2009 का अवतरण


{{KKRachna
|रचनाकार=अनूप सेठी
}}



सड़क बहुत चौड़ी और मजबूत बहुत

सीमेंट की सर्द सिल्लियाँ बेपरवाह



नीचे टेलिफोन और बिजली की तारों का जाल

पीने के पानी की नालियां

शहर भर की गँदगी के नाले चलाएमान

ऊपर हर प्रजाति का वाहन

अपनी अपनी आग बुझाने दौड़े जा रहा



अगल-बगल पारदर्शी अपारदर्शी चमचमाती दुकानें

डरावनी स्वागती मुद्रा में

लील जाने को आतुर

पान और चाय और मोचियों की टपरियाँ

बीच की खाली जगहों में या

इनकी वजह से दिखती खाली जगहों में

एक पैर पर खड़ी हुईं



दिन में एक बार तबेलों से निकल कर

उदासी सम्प्रदाय की गाएँ

जहाँसड़क सम्भ्राँत इलाके से गुजरती है

टहलती हैं, स्थिर हो जाती हैं, पसर जाती हैं

इतनी बेतकल्लुफी तो इस इलाके की जनानियों को

किटी, क्लब या पार्लर में भी नहीं नसीब

ज़ाहिर है घर या बाथरूम में तो नहीं ही



किसी बड़े से बड़े फन्ने खाँ की

ऊँची से ऊँची नाक वाली गाड़ी

मंहगे से मंहगे गराज में नियमित मालिश करवाने के बावजूद

सड़क के किसी भी छोर पर कभी भी धरना दे सकती है



जैसे गायों और गाड़ियों में कोई बहनापा हो

जैसे यही हैं सत्याग्रहियों की सच्ची वारिस



यही बचे रह गए हैं इच्छाधारी जीव

बाकी सब जो है सड़क पर या सड़क के बाहर

है किसी और के इच्छाधीन



पीठ पीछे कश हॉर्न हैं

ज़मीन को दहलाती घर्र घर्र है

भाग लो वरना कुचले जाओगे

सड़क छोड़ घुसोगे घरों में पनाह पाने

एक रात से ज्यादा गुज़ार नहीं पाओगे एक बार

बीच सड़क खदेड़े जाओगे बार बार



हांफते हुए शायद कहीं दिख जाए कभी

बरसात के बाद की भीगी हुई सड़क तस्वीर की मानिंद



किनारे पर चलते हैं असहाय बूढ़े, हारे हुए नागरिक

लुटे हुए बदहवास मुसाफिर

या जो अर्थी को कंधा दे रहे होते हैं

बच्चे भी बूढ़े होते हैं यहीं

भविष्य का बोझ लादे हुए



सड़क है ऐसी बेमुरव्वत

निशान कोई छूटता नहीं किसी तरह का



सड़क जिन्होंने बनवाई

नहीं है सड़क की लगाम उनके भी हाथ में।



(1998)