भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सत्य / राजकिशोर सिंह

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:37, 7 दिसम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजकिशोर सिंह |अनुवादक= |संग्रह=श...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं जानता हूँ
सब जानते हैं
गरीबों को देऽकर
दिल पिघलता है
मगर
मेढक को देऽकर
सांप निगलता है
यही सत्य है
सबका यही मत है
मेढक सांप का आहार है
कमजोरों पर बलवानों का प्रहार है
इसे दुनिया जानती है
प्रकृति मानती है
लेकिन देऽी मैंने एक अनोऽी झांकी
उसे कुछ समझा कुछ रहा बाकी
एक मेढक पहने हुए था गांध्ी टोप
उसे देऽकर बड़े-बड़े
विषैले अजगर हो गए लोप
यह कैसी बात है

ध्ूप में बरसात है
एक काला करैत अकड़ता रहा
गांध्ी टोप वाला मेढक
उसे पकड़ता रहा
और आसानी से निगलता रहा
यह विस्मित लीला देऽ
ठोस पिघलता रहा
द्रव मचलता रहा
आज तक मेढक को
निगलता था सांप
लेकिन आज
मेढ़क ही निगलता सांप
यह गांध्ी टोप का कमाल है
राजनीति का बवाल है
समाज का सवाल है
पफनकारों की यह दशा ?
मेरा क्या हाल है।