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सन्ध्या / महेन्द्र भटनागर

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नीला-नीला व्योम कि जिसमें छाये कुछ काले-काले घन,
संध्या की बेला है जगती का सूना-सूना-सा आँगन !

चरती भैंसें मैदानों में, कुछ मेड़ों-खेतों के ऊपर,
धीरे-धीरे बजता है गति के क्रम से घंटी का मधु-स्वर !

आँख-मिचैनी खेल रहे हैं मेघ निकट जा-जा सूरज के,
उड़ता लंबी पाँति बनाकर बगलों का दल-बल सजधज के!

कवि ऊँचे टीले पर बैठा दिन का ढलना देख रहा है,
प्रकृति-वधू का चुप-चुप तन से वस्त्रा बदलना देख रहा है!
1943