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कुछ लोग भ्रान्तिवश मुझे शान्ति कहते हैं,
कुछ निस्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं
मैं शांत नहीं निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूँ
मैं मौन नहीं हूँ, मुझमें स्वर बहते हैं।
मैं सन्नाटा हूँ, फिर भी बोल रहा हूँ,
मैं शान्त बहुत हूँ, फिर भी डोल रहा हूँ
यह ये सर सर यह ये खड़ खड़ सब मेरी है
है यह रहस्य मैं इसको खोल रहा हूँ।
हाँ, यहाँ किले की दीवारों के ऊपर,
नीचे तलघर में या समतल पर, या भू पर
कुछ जन श्रुतियों का पहरा यहाँ लगा है,
जो मुझे भयानक कर देती है छू कर।
तुम डरो नहीं, डर वैसे डर कहाँ नहीं है,
पर खास बात डर की कुछ यहाँ नहीं है
बस एक बात है, वह केवल ऐसी है,
यहाँ बहुत दिन हुए एक थी रानी,
इतिहास बताता उसकी नहीं उसकी कहानी
वह किसी एक पागल पर जान दिये थी,
थी उसकी केवल एक यही नादानी!
खिंच गयी हृदय पर उसके दुख की रेखा
यह भरा क्रोध में आया और रानी से,
उसने माँगा इन सब साँझों का लेखा।लेखा-जोखा।
रानी बोली पागल को जरा बुला दो,
बंसी बजवा कर मुझको जरा सुला दो।
वह वो राजा था हाँ, कोई खेल नहीं था,ऐसे जवाब से उसका कोई मेल नहीं थारानी ऐसे बोली थी, जैसे उसकेइस बड़े किले में कोई जेल नहीं था।
तुम जहाँ खड़े हो, यहीं कभी सूली थी,
रानी की कोमल देह यहीं झूली थी
हाँ, पागल की भी यहीं, यहीं रानी कीभी यहीं,राजा हँस कर बोला, रानी तू भूली थी।
किन्तु नहीं फिर राजा ने सुख जाना,
तब और बरस बीते, राजा भी बीते,
रह गये किले के कमरे कमरे रीते रीते
तब मैं आया, कुछ मेरे साथी आये,
अब हम सब मिलकर करते हैं मनचीते।
पर कभी कभी जब वो पागल आ जाता है,
लाता है रानी को, या गा जाता है
तब मेरे उल्लू, साँप और गिरगिट पर
अनजान एक अनजान सकता-सा छा जाता है।
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