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समझौता / कविता वाचक्नवी

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समझौता


तुम्हारी आत्म तृप्ति और तोष
सहज ही संतोष कर लें
सो किलकती रहती हूँ।
संतोष से रीता कोई तार
पीड़ा का पंचम छेड़ देगा
मेरे थके गलियारे में।
तुम्हारे असंतोष का धारदार हल
परतें उखाड़ देगा
फैले बंजर की
काँटे चटख जाएँगे
दरारें दरक जाएँगी

ओट लेगा
तुम्हारा कोई खेद
तुम्हारा कोई स्वेद
जाडे़ की धूप,
टोक देगा
बरसाती धारा में
पत्तियों, सरकंडों की
मीठी छुअन पकड़ते मेरे पैर,
पात झरते डालों पर भी
भरपूर आशा-दृष्टि,
वसंत के एक और रंग की चाह
शरद के गन्नों की मिठास।

साथ देने के
दायित्व-बोध से प्रेरित तुम
मेरी उड़ान की क्षमता भी
लील लोगे,
सो किलकती रहती हूँ
तुम्हारा आत्मतोष
देखने भर को।