भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
भीमकाय समय के कदमों पर
मैं खडा खड़ा हूं हां, खडा खड़ा ही हूं -- जमीन कोडता कोड़ता हुआऔर वह बरसों से वहीं खडा खड़ा है--
अपनी हथेलियों पर
भूत, भविष्य और वर्तमान
की तीनों गेंदें
बारी-बारी उछालते हुए
टप- टप टपकाते हुए
और मैं हूं कि--
बुरी तरह ढलता जा रहा हूं
साल-दर-साल बूढे बूढ़े होते प्लेटफार्मों पर,बरसों से खाली पडे पड़े खलिहानों और
पानी को तरसती नदी तल पर,
वह खडा खड़ा है--उसी तरह अपने सिर से आसमान भेदते हुए
अपनी काली-चमकदार मूंछों पर ताव देते हुए
या, सडकसड़क-किनारे गुमटी के पास
गरमा-गरम चाय चुसुकते हुए
और ढल रहे लोगों के हाथ में
अखबारों की सूर्खियां पढते पढ़ते हुए
कप की चाय के बासी होते-होते
वह कब तक यहां जमा रहेगा
ताश खेलते हुए मवालियों पर
फ़ब्तियां कसते कसता रहेगा,
जबकि मेरे साथ ढलता जाएगा
मेरा ख्याल, -- जो बाद मेरे भीबूढे बूढ़े लोगों के दिमाग में बना रहेगा-- जेब में हाथ डाले हुए बाबुओं के होठो होठों पर तिल-तिल कर दम तोड तोड़ रही
---सिगरेट की तरह।