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समर निंद्य है / भाग २ / रामधारी सिंह "दिनकर"
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अहंकार के साथ घृणा का
जहाँ द्वंद हो जारी;
ऊपर, शान्ति, तलातल में
हो छिटक रही चिंगारी;
- आगामी विस्फोट काल के
- मुख पर दमक रहा हो;
- इंगित में अंगार विवश
- भावों के चमक रहा हो;
- आगामी विस्फोट काल के
पढ़कर भी संकेत सजग हों
किन्तु, न सत्ताधारी;
दुर्मति और अनल में दें
आहुतियाँ बारी-बारी;
- कभी नये शोषण से, कभी
- उपेक्षा, कभी दमन से,
- अपमानों से कभी, कभी
- शर-वेधक व्यंत्य-वचन से।
- कभी नये शोषण से, कभी
दबे हुए आवेग वहाँ यदि
उबल किसी दिन फूटें,
संयम छोड़, काल बन मानव
अन्यायी पर टूटें,
- कहो कौन दायी होगा
- उस दारुण जगद्दहन का
- अहंकार या घृणा? कौन
- दोषी होगा उस रण का ?
- कहो कौन दायी होगा
तुम विषण्ण हो समझ
हुआ जगदाह तुम्हारे कर से।
सोचो तो, क्या अग्नि समर की
बरसी थी अंबर से?
- अथवा अकस्मात मिट्टि से
- फूटी थी यह ज्वाला ?
- या मंत्रों के बल से जनमी
- थी यह शिखा कराला ?
- अथवा अकस्मात मिट्टि से
कुरुक्षेत्र से पूर्व नहीं क्या
समर लगा था चलने ?
प्रतिहिंसा का दीप भयानक
हृदय-हृदय में बलने ?
- शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का
- जब वर्जन करती है,
- तभी जान लो, किसी समर का
- वह सर्जन करती है।
- शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का
शान्ति नहीं तब तक; जब तक
सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो,
नहीं किसी को कम हो।
- ऐसी शान्ति राज्य करती है
- तन पर नहीं हृदय पर,
- नर के ऊँचे विश्वासों पर,
- श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।
- ऐसी शान्ति राज्य करती है