भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समुद्र भर रात / अनूप सेठी

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:07, 23 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनूप सेठी }} <poem> धीरे-धीरे खिड़की की ग्रिल बाकी रह...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धीरे-धीरे खिड़की की ग्रिल बाकी रहती है
पर्दों के रँग धूसर होते जाते हैं
सड़क हर पहिए के साथ दहलती है

एक समुद्र हठात् अंदर आने लगता है
घुप्प फैलता जाता है

बाहों से काटता हूँ
पानी गहरा और भारी
जैसे पँखा घूमता है
सारी रात

सड़क किनारे के खम्भे से निकलती है
पस्त लहरों सी पटकती है सिर
दीवार पर आकर ग्रिल की छाया

कोई रास्ता नहीं बाकी
इतना भारी है समुद्र।
                          (1987)