भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सरदर्द / सूरज

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:37, 16 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरज |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> मस्तिष्क के किसी कोने म…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मस्तिष्क के किसी कोने में रखी तुम्हारी
आहटें चींथती हैं, मुर्झायी कोई कील चुभती
है, जैसे छेनी-हथौड़ी से सर की हड्डियों
पर कशीदाकारी की जा रही हो कोई
ठक-ठक-ठक
लगातार
ठक-ठक-ठक

मृत्यु इच्छा की तरह प्यारी लगती है
अपने अनकिए अपराध ख़ूब याद आते
है समय ठहर जाता है जब सुबह-सुबह
आने वाले इस संकट का आभास मुझे
होता है मैं तैयार होने लगता हूँ अपने
आप से लड़ना कठिन है दर्द का ईश्वर
उस पार से मुझे देख मुस्कुराता है मेरी
लुढ़की गर्दन, जिसके हिलने भर से हज़ार-
हज़ार बिच्छुओं का डंक लगता है, जानती
है दर्द के उस पापी ईश्वर से अलग मेरे
लिये कोई नही, अब कोई भी नहीं

फ़ौरन से पेश्तर मैं जीने की अपनी
असीम आकाँक्षा किसी को भी बताना
चाहता हूँ,
ताकि सनद रहे ।