भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सर झुकाए हुए दरबार में देखा गया है / राज़िक़ अंसारी
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:39, 18 दिसम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राज़िक़ अंसारी }} {{KKCatGhazal}} <poem> सर झुका...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सर झुकाए हुए दरबार में देखा गया है
कल तुझे इक नए किरदार में देखा गया है
भीड़ के साथ नज़र आया था कल तू भी दोस्त
तुझ को टीवी पे समाचार में देखा गया है
जिस से मिलने के लिए वक़्त लिया जाता था
आज उसको सफ़े लाचार में देखा गया है
लोग अब हाथ मिलाते हुए भी डरते हैं
ख़ौफ़ इतना कभी संसार में देखा गया है
और भी लोग मेरे साथ खड़े थे लेकिन
ऐब तो बस मेरे किरदार में देखा गया है
जिस को दुख मेरे नहीं जीतने का होना था
उसको ख़ुश होते मेरी हार में देखा गया है
क़ैस को दश्त में और तुम को जनाबे राज़िक़
ख़ाक उड़ाते हुए बाज़ार में देखा गया है