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'''सहज गीत गाना होता तो *''' 
सहज गीत गाना होता तो, पीड़ा का यह ज्वार न होता।
लय की भाँवर स्वर से पड़तीं, गीत कभी बेज़ार न रोता।।
 
सुधियों की देहरी पर पहरा,
निठुर उदासी की गद्दी का।
बेदर्दिन तड़पाती देखी,
इतनी कभी लौह की असि क्या?
 
सागर आसानी से तिरता, तो फिर यह मँझधार न होता।
दुःखी न मरते सिसक-सिसक कर, तो शायद यह क्षार न होता।।
लौट चले बेचारे दर्शक,
पथ पर नीरस, अनमन-अनमन।
 
आह अगर होती न कदाचित् यौवन का कुछ सार न होता।
होता अगर समर्थ आज मैं, कल को कभी उधार न होता।।
पहली लिखी पंक्तियाँ फिर-फिर,
साथ-साथ मिटती जाती हैं।
 
पीर लिए, सब कवि बन जाते, कवि का अर्थ प्रचार न होता।
सभी गीत बन कर रह जाते, सपनों का संसार न होता।।
 
मेरे इस शीतल अन्तस् में,
इतने तप्त भाव सोते हैं।
कभी अधिक पीड़ा के कारण,
आँसू दो ढुलका देता हूँ।
 
उर के भाव व्यक्त होते तो, इतना कभी उदार न होता।
अपने व्यवहारों में सचमुच, इतना कभी सुधार न होता।।
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