भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"साँचा:KKPoemOfTheWeek" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
<td rowspan=2>
 
<td rowspan=2>
 
<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
 
<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : अघोषित उलगुलान ('''रचनाकार:''' [[अनुज लुगुन ]])</div>
+
<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : अच्‍छे बच्‍चे ('''रचनाकार:''' [[नरेश सक्‍सेना ]])</div>
 
</td>
 
</td>
 
</tr>
 
</tr>
 
</table><pre style="text-align:left;overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
 
</table><pre style="text-align:left;overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
अघोषित उलगुलान (अघोषित आंदोलन)
+
अच्‍छे बच्‍चे
  
अल सुबह दान्डू का काफ़िला
+
कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं
रुख़ करता है शहर की ओर
+
वे गेंद और ग़ुब्बारे नहीं मांगते
और साँझ ढले वापस आता है
+
मिठाई नहीं मांगते ज़िद नहीं करते
परिन्दों के झुण्ड-सा,
+
और मचलते तो हैं ही नहीं
  
अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन
+
बड़ों का कहना मानते हैं
और कटती है रात
+
वे छोटों का भी कहना मानते हैं
अधूरे सनसनीखेज क़िस्सों के साथ
+
इतने अच्छे होते हैं
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
+
दबी रह जाती है
+
जीवन की पदचाप
+
बिल्कुल मौन !
+
  
वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
+
इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम
ज़हर-बुझे तीर से
+
और मिलते ही
या खेलते थे
+
उन्हें ले आते हैं घर
रक्त-रंजित होली
+
अक्सर
अपने स्वत्व की आँच से
+
तीस रुपये महीने और खाने पर।
खेलते हैं शहर के
+
कंक्रीटीय जंगल में
+
जीवन बचाने का खेल
+
  
शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
 
शहर में
 
अघोषित उलगुलान में
 
लड़ रहे हैं जंगल
 
 
लड़ रहे हैं ये
 
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ़
 
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ़
 
गुफ़ाओं की तरह टूटती
 
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ़
 
 
इनमें भी वही आक्रोशित हैं
 
जो या तो अभावग्रस्त हैं
 
या तनावग्रस्त हैं
 
बाकी तटस्थ हैं
 
या लूट में शामिल हैं
 
मंत्री जी की तरह
 
जो आदिवासीयत का राग भूल गए
 
रेमण्ड का सूट पहनने के बाद ।
 
 
कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
 
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
 
पहाड़ों के टूटने पर
 
नदियों के सूखने पर
 
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
 
तुरिया की लवारिस लाश पर
 
कोई कुछ नहीं बोलता
 
 
बोलते हैं बोलने वाले
 
केवल सियासत की गलियों में
 
आरक्षण के नाम पर
 
बोलते हैं लोग केवल
 
उनके धर्मांतरण पर
 
चिंता है उन्हें
 
उनके 'हिन्दू’ या 'ईसाई’ हो जाने की
 
 
यह चिंता नहीं कि
 
रोज कंक्रीट के ओखल में
 
पिसते हैं उनके तलबे
 
और लोहे की ढेंकी में
 
कूटती है उनकी आत्मा
 
 
बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।
 
 
लड़ रहे हैं आदिवासी
 
अघोषित उलगुलान में
 
कट रहे हैं वृक्ष
 
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
 
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल ।
 
 
दान्डू जाए तो कहाँ जाए
 
कटते जंगल में
 
या बढ़ते जंगल में ।
 
 
</pre></center></div>
 
</pre></center></div>

23:25, 17 अगस्त 2011 का अवतरण

Lotus-48x48.png
सप्ताह की कविता
शीर्षक : अच्‍छे बच्‍चे (रचनाकार: नरेश सक्‍सेना )
अच्‍छे बच्‍चे

कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं
वे गेंद और ग़ुब्बारे नहीं मांगते
मिठाई नहीं मांगते ज़िद नहीं करते
और मचलते तो हैं ही नहीं

बड़ों का कहना मानते हैं
वे छोटों का भी कहना मानते हैं
इतने अच्छे होते हैं

इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम
और मिलते ही
उन्हें ले आते हैं घर
अक्सर
तीस रुपये महीने और खाने पर।