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<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
 
<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : स्त्री की तीर्थयात्रा '''रचनाकार:''' [[विश्वनाथप्रसाद तिवारी]] </div>
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<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : वतन का गीत  '''रचनाकार:''' [[गोरख पाण्डेय]] </div>
 
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सवेरे-सवेरे
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हमारे वतन की नई ज़िन्दगी हो
उसने बर्तन साफ़ किए
+
नई ज़िन्दगी इक मुकम्मिल ख़ुशी हो
घर-भर के जूठे बर्तन
+
नया हो गुलिस्ताँ नई बुलबुलें हों
झाड़ू-पोंछे के बाद
+
मुहब्बत की कोई नई रागिनी हो
बेटियों को संवार कर
+
न हो कोई राजा न हो रंक कोई
स्कूल रवाना किया
+
सभी हों बराबर सभी आदमी हों
सबके लिए बनाई चाय
+
न ही हथकड़ी कोई फ़सलों को डाले
 
+
हमारे दिलों की न सौदागरी हो
जब वह छोटा बच्चा ज़ोर-ज़ोर रोने लगा
+
ज़ुबानों पे पाबन्दियाँ हों न कोई
वह बीच में उठी पूजा छोड़कर
+
निगाहों में अपनी नई रोशनी हो
उसका सू-सू साफ़ किया
+
न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन
 
+
न ही कोई भी क़ायदा हिटलरी हो
दोपहर भोजन के आख़िरी दौर में
+
सभी होंठ आज़ाद हों मयक़दे में
आ गए एक मेहमान
+
कि गंगो-जमन जैसी दरियादिली हो
दाल में पानी मिला कर
+
नये फ़ैसले हों नई कोशिशें हों
किया उसने अतिथि-सत्कार
+
नयी मंज़िलों की कशिश भी नई हो
और बैठ गई चटनी के साथ
+
बची हुई रोटी लेकर
+
 
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क्षण भर चाहती थी वह आराम
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कि आ गईं बेटियाँ स्कूल से मुरझाई हुईं
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उनके टंट-घंट में जुटी
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फिर जुटी संझा की रसोई में
+
 
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रात में सबके बाद खाने बैठी
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अब की रोटी के साथ थी सब्ज़ी भी
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जिसे पति ने अपनी रुचि से ख़रीदा था
+
 
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बिस्तर पर गिरने से पहले
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वह अकेले में थोड़ी देर रोई
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अपने स्वर्गीय बाबा की याद में
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फिर पति की बाँहों में
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सोचते-सोचते बेटियों के ब्याह के बारे में
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ग़ायब हो गई सपनों की दुनिया में
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और नींद में ही पूरी कर ली उसने
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सभी तीर्थों की यात्रा ।
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13:19, 9 अगस्त 2012 का अवतरण

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सप्ताह की कविता
शीर्षक : वतन का गीत रचनाकार: गोरख पाण्डेय
हमारे वतन की नई ज़िन्दगी हो
नई ज़िन्दगी इक मुकम्मिल ख़ुशी हो
नया हो गुलिस्ताँ नई बुलबुलें हों
मुहब्बत की कोई नई रागिनी हो
न हो कोई राजा न हो रंक कोई
सभी हों बराबर सभी आदमी हों
न ही हथकड़ी कोई फ़सलों को डाले
हमारे दिलों की न सौदागरी हो
ज़ुबानों पे पाबन्दियाँ हों न कोई
निगाहों में अपनी नई रोशनी हो
न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन
न ही कोई भी क़ायदा हिटलरी हो
सभी होंठ आज़ाद हों मयक़दे में
कि गंगो-जमन जैसी दरियादिली हो
नये फ़ैसले हों नई कोशिशें हों
नयी मंज़िलों की कशिश भी नई हो