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साँचा:KKPoemOfTheWeek

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<div style="font-size:120%; color:#a00000; text-align: center;">समूहगानखुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार</div>
<divstyle="text-align: center;">रचनाकार: [[शुभ्र दासगुप्तत्रिलोचन]]
</div>
<poemdiv style="background: #fff; border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; margin: 0 auto; padding: 0 20px; white-space: pre;">देश मतलब सिल्क का झकझक करता हुआ झंडा नहीं ।खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वारदेश मतलब रेड रोड पर परेड नहींटी०वी० पर मंत्रियों का श्रीमुख नहीं देश का मतलबदेश का मतलब एसियाड,फ़िल्म फेस्टिवल, संगीत-समारोह नहीं ।अपरिचित पास आओ
देश मतलब कुछ औरआँखों में सशंक जिज्ञासामिक्ति कहाँ, कुछ अलग ही ।है अभी कुहासाजहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैंस्तम्भ शेष भय की परिभाषाहिलो-मिलो फिर एक डाल केखिलो फूल-से, मत अलगाओ
बीड़ी बाँधते-बाँधते जो दुबला आदमी क्रमश: और दुबला हो रहा हैसबमें अपनेपन की मायाअनजाने में टी०बी० के कीटाणु अपने सीने की खाँचे पन में पाल रहा हैउस आदमी के निद्राहीन रात मेंजब गले में उठता है रक्त तब उसी रक्त के धब्बों-थक्कों मेंजागता है देश । सारा दिन ट्रेन की बोगी में आँवला या बादाम बेचता हुआपढ़ा-लिखा युवक जिसे हॉकर कार्ड पाने के बदलेइच्छा के विरुद्ध जाना पड़ता है सभी रैलियों मीटिंग-समावेशों मेंगला फाड़-फाड़कर लगाना पड़ता है 'बंदे मातरम' या 'इन्कलाब ज़िन्दाबाद' के नारेउसी युवक की सेफ़्टीपिन लगी हवाई चप्पलजब टूट जाती है अचानक यातायात के पथ परतब उसी हताशा की घड़ी मेंजागता है देश । सिनेमा हॉल के सामने सिल्क की सस्ती साड़ी और उससे भी सस्तीमेकअप से खुद को बेचने के लिए सजाए जो मुफ़लिस लड़कीरोज़ ग्राहक पकड़ने की ख़ातिर तीव्र वासना में निर्लज्ज हो पल-पल गिनतीजब उसका ग्राहक आता है और वही ग्राहक जब बुलाता है उसे -“आ ...गाड़ी के अंदर “- उसी आह्वान मेंजागता है देश । देश मतलब लालकिला से प्रधानमंत्री का स्वाधीनता भाषण नहींदेश मतलब माथे पे लाल बत्ती लगाए झकमक अंबेसडर नहींसचिन का शतक या सौरभ की कैप्टेनसी नहीं देश का मतलबदेश का मतलब लीग या डुरांड नहीं | देश मतलब कुछ और, कुछ अलग ही | नौ बरस से बंद कारखाने में जंग लगे ताला लटकते गेट के सामनेझूलसा हुआ जो भूतपूर्व श्रमिक माँगता है भीखउसकी आँखों की तीव्र अग्नि में है देश । नेताओं की बात पर ख़ून,डकैती सब पाप करके अचानक फँस जाने परइलाक़े में आतंक का पर्याय बना जो युवक पुलिस की धुलाई सेलॉकअप के अँधेरे में कराह रहा हैउसकी आँखों की भर्त्सना में है देश । सारा जीवन छात्रों को पढ़ाकर परिवारहीन स्कूल मास्टर !जब प्राप्य पेंशन न पाकर रेलवे स्टेशन पर मांगने बैठते हैं भीखउनके अल्मुनियम के कटोरे की शून्यता में है देश । देश है । रहेगा । बनावटी कोजागरी* में नहींअसल अमावस की घोर अंधकार में । *आश्विन महीने के कोजागरी पूर्णिमा में धन की देवी लक्ष्मी के आगमन पर उनकी पूजा होती है | अनुवाद : सुन्दर सृजकआया </poemdiv>
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