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नई सदी</div>
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शहर में रात</div>
  
 
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रचनाकार: [[ नीलेश रघुवंशी]]
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रचनाकार: [[केदारनाथ सिंह]]
 
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आतंक और बर्बरता से शुरू हुई नई सदी
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बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है
धार्मिक उन्माद और बर्बर हमले बने पहचान
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वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है
इक्कीसवीं सदी के
+
वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा
बदा था इक्कीसवीं सदी की क़िस्मत में
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वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा
मरते जाना हर दिन बेगुनाह लोगों का
+
 
हज़ार बरस पीछे ढकेलने का षड्यन्त्र !
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वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे
आख़िर किया किसने ?
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हैं उलझ गए जीने के सारे धागे
किसने ? किसने ढकेला जीवन के  
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यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ
बुनियादी हक़ों को हाशिए पर ?
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कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ
क्या सचमुच
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इक्कीसवीं सदी उन्माद और युद्धोन्माद
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यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी
की सदी होगी या
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ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी
होगी उजड़ते संसार में एक हरी पत्ती की तरह ?
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तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में
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यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में
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साथियो, रात आई, अब मैं जाता हूँ
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इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ
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जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे
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किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें
 
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22:55, 20 जून 2014 का अवतरण

शहर में रात

रचनाकार: केदारनाथ सिंह

Kk-poem-border-1.png

बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा

वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे हैं उलझ गए जीने के सारे धागे यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ

यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में

साथियो, रात आई, अब मैं जाता हूँ इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें