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तुम सामने आते हो पहलू बदल बदल कर</div>
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विद्वान का ढेला</div>
  
 
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रचनाकार: [[सुरेश सलिल]]
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रचनाकार: [[ताद्युश रोज़ेविच]]
 
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तुम सामने आते हो पहलू बदल-बदल कर
+
इस कविता को
बिजली-सी गिराते हो पहलू बदल-बदल कर
+
सुला देना चाहिए
  
इस आइने में देखूँ - उस आइने में देखूँ
+
इसके पहले कि शुरू हो
कुछ राज़ छिपाते हो पहलू बदल-बदल कर
+
इसका विद्वान होना
 +
इसके पहले कि
 +
यह कविता शुरू हो  
  
पहलू बदल-बदल कर इक़रार-ए-इश्क़ कैसा
+
इसके पहले कि
उँगली पे' नचाते हो, पहलू बदल-बदल कर
+
यह तारीफ़ें बटोरे
 +
किसी विस्मरण के पल में
 +
यह जीवित हो  
  
तुमको ही रिझाने को, ये सारी ग़ज़लगोई
+
इसके पहले कि
हर शे'र में आते हो, पहलू बदल-बदल कर
+
अपनी ओर  आते शब्दों और
 +
आँखों की यह अभ्यस्त हो  
  
इर्शाद-ओ-मुक़र्रर की उम्मीद कौन बाँधे
+
इसके पहले कि
जब शमअ हटाते हो, पहलू बदल-बदल कर
+
यह विद्वानों के उपदेश लेना
 +
शुरू करे
  
(रचनाकाल : 2003)  
+
गुज़रने वाले राहगीर
 +
कतराकर गुज़र जाते हैं
 +
कोई भी नहीं उठाता
 +
वह विद्वान ढेला
 +
 
 +
उस ढेले के भीतर
 +
एक नन्हीं-सी,
 +
सफ़ेद,
 +
नंगी कविता
 +
जलती रहती है
 +
 
 +
राख हो जाने तक ।
 +
 
 +
(रचनाकाल : 2002-2003)  
 
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23:34, 4 मई 2014 का अवतरण

विद्वान का ढेला
Kk-poem-border-1.png

इस कविता को सुला देना चाहिए

इसके पहले कि शुरू हो इसका विद्वान होना इसके पहले कि यह कविता शुरू हो

इसके पहले कि यह तारीफ़ें बटोरे किसी विस्मरण के पल में यह जीवित हो

इसके पहले कि अपनी ओर आते शब्दों और आँखों की यह अभ्यस्त हो

इसके पहले कि यह विद्वानों के उपदेश लेना शुरू करे

गुज़रने वाले राहगीर कतराकर गुज़र जाते हैं कोई भी नहीं उठाता वह विद्वान ढेला

उस ढेले के भीतर एक नन्हीं-सी, सफ़ेद, नंगी कविता जलती रहती है

राख हो जाने तक ।

(रचनाकाल : 2002-2003)