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सप्ताह की कविता
शीर्षक : गरीबी ! तू न यहाँ से जा.. (रचनाकार: कोदूराम दलित)
गरीबी ! तू न यहाँ से जा
एक बात मेरी सुन, पगली
बैठ यहाँ पर आ,
गरीबी तू न यहाँ से जा...

चली जाएगी तू यदि तो दीनों के दिन फिर जाएँगे
मजदूर-किसान सुखी बनकर गुलछर्रे खूब उड़ाएँगे
फिर कौन करेगा पूँजीपतियों ,की इतनी परवाह
गरीबी तू न यहाँ से जा...

बेमौत मरेंगे बेचारे ये सेठ, महाजन, जमीनदार
धुल जाएगी यह चमक-दमक, ठंडा होगा सब कारबार
रक्षक बनकर, भक्षक मत बन, तू इन पर जुलुम न ढा
गरीबी तू न यहाँ से जा...

सारे गरीब नंगे रहकर दुख पाते हों तो पाने दे
दाने-दाने के लिए तरस मर जाते हों, मर जाने दे
यदि मरे–जिए कोई तो इसमें तेरी गलती क्या
गरीबी तू न यहाँ से जा...

यदि सुबह-शाम कुछ लोग व्यर्थ चिल्लाते हों, चिल्लाने दे
’हो पूँजीवाद विनाश’ आदि के नारे इन्हें लगाने दे
है अपना ही अब राज-काज, तू गीत खुशी के गा
गरीबी तू न यहाँ से जा...

यह अन्य देश नहीं, भारत है, समझाता हूँ मैं बार-बार
कर मौज यहीं रह करके तू, हिम्मत न हार, हिम्मत न हार
मैं नेक सलाह दे रहा हूँ, तू बिल्कुल मत घबरा
गरीबी तू न यहाँ से जा...

केवल धनिकों को छोड़ यहाँ पर सभी पुजारी तेरे हैं
तू भी तो  कहते आई है ’ये मेरे हैं, ये मेरे हैं’
सदियों से जिनको अपनाया है, उन्हें न अब ठुकरा
गरीबी तू न यहाँ से जा...

लाखों कुटियों के बीच खड़े आबाद रहें ये रंगमहल
आबाद रहें ये रंगरलियाँ, आबाद रहे यह चहल-पहल
तू जा के पूंजीपतियों पर, आफ़त नई न ला
गरीबी तू न यहाँ से जा...

ये धनिक और निर्धन तेरे जाने से सम हो जाएँगे
तब तो परमेश्वर भी केवल समदर्शी ही कहलाएँगे
फिर कौन कहेगा ’दीनबंधु’, उनको तू बतला
गरीबी तू न यहाँ से जा...
(रचनाकाल  लगभग १९६५)