भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साँस लेना भी कैसी आदत है / गुलज़ार

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:33, 11 मार्च 2009 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साँस लेना भी कैसी आदत है
जीये जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आँखों में
पाँव बेहिस हैं, चलते जाते हैं
इक सफ़र है जो बहता रहता है
कितने बरसों से, कितनी सदियों से
जिये जाते हैं, जिये जाते हैं

आदतें भी अजीब होती हैं