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साक्षी, / गुलाब खंडेलवाल

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मेरी इस पीड़ा का साक्षी कहो, कौन है?
अन्धकार,
जो कि जड़, अंध और मौन है?
या फिर प्रकाश,
नहीं जिसके पास कोई लेखा है, 
मेरी इस पराजय और पीड़ा को 
आज तक जिसने नहीं देखा है?
क्या ये शब्द-बंध,
नि:स्व, निर्जीव, नि:स्पंद,  
कहेंगे उसे जो अनकहा
मैंने मन-ही-मन सहा?
नीरव निशीथ के वे अश्रुकण
सूख गए भू में जो क्षण-क्षण
साक्षी हो सकेंगे इस जलन के?
भोगे नहीं, देखे हुए  क्षण के?
 
साथ रह कर भी प्राण के दुख को
दूसरे किसीने नहीं झेला है,
मन की इस पीड़ा का साक्षी तो
एक मेरा मन ही अकेला है.
वही कह सकेगा प्रतिचरण मैंने
कैसे निज हाथों से गढ़ा है,
भोगा है कैसे वह बार-बार
जो तुमने पुस्तकों में पढ़ा है