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सागर हो कि वन हो कि नगर, सबके लिए हो / गिरिराज शरण अग्रवाल

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सागर हो कि वन हो कि नगर, सबके लिए हो
हो दिल में तेरे प्यार मगर, सबके लिए हो

मंज़िल पे जो पहुँचूँ तो सदा दूँ मैं सभी को
करना जो मुझे हो, वह सफ़र, सबके लिए हो

अब धूप में झुलसे न किसी शख़्स का चेहरा
साया हो सभी के लिए, घर सबके लिए हो

साबित न हो रस्ते पे किसी का भी इजारा
मंज़िल पे पहुँचने की डगर सबके लिए हो

बस अपने ही सुख-चैन की चिंता न रहे अब
हम भी हों वहीं, चैन जिधर सबके लिए हो