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साधना का मर्म / महेन्द्र भटनागर

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क्या चले कुछ दूर पथ पर, मन! सतत-आवेश भरकर,
क्या तपे हो अग्नि में तुम मौन, कुन्दन-से निखर कर ?

कब मिटे हो तुम जगत में शांतिमय जीवन बसाने ?
कब बढ़े हो गहन तम में दूर का आलोक पाने ?

हैं कहाँ देखे अभी इस विश्व में तूफ़ान निर्मम ?
कब किये हैं पार तुमने पंथ बिन पाथेय दुर्गम ?

है सहा मरुभूमि का कब शीत-गर्मी-ताप भीषण ?
कब हुए हैं तिक्त अनुभव, कब हुआ दुख-ग्रस्त जीवन ?

श्रम-कणों की धार फूटी क्या कभी इस फूल-तन से ?
आपदाएँ हैं सहीं क्या स्वस्थ निर्भय शांत मन से ?

ये चरण डगमग हिलेंगे जब कहोगे, ‘सह रहे हैं !’
दुःख के कटु दुर्दिनों में, जब कहोगे, ‘रह रहे हैं !’

जान जाओगे तभी तुम साधना का मर्म क्या है !
हो सतत संघर्ष का युग, फिर मनुज का धर्म क्या है !
1944