भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सितारों से उलझता जा रहा हूँ / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 15: पंक्ति 15:
 
गुमाँ ये है कि धोखे खा रहा हूँ <br><br>
 
गुमाँ ये है कि धोखे खा रहा हूँ <br><br>
  
अगर मुम्किन हो ले ले अपनी आहट <br>
+
अगर मुमकिन हो ले ले अपनी आहट <br>
 
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ <br><br>
 
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ <br><br>
  
पंक्ति 22: पंक्ति 22:
  
 
ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मुहब्बत <br>
 
ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मुहब्बत <br>
तेरे हाथों में लुटता जा रहा हूँ <br><br>
+
तेरे हाथों में लुटाता जा रहा हूँ <br><br>
  
 
असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का<br>
 
असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का<br>
तुझे कायल भी करता जा रहा हूँ <br><br>
+
तुझे कायल भी कराता जा रहा हूँ <br><br>
  
 
भरम तेरे सितम का खुल चुका है<br>
 
भरम तेरे सितम का खुल चुका है<br>

21:46, 14 फ़रवरी 2010 का अवतरण

सितारों से उलझता जा रहा हूँ
शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूँ

तेरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ
जहाँ को भी समझा रहा हूँ

यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमाँ ये है कि धोखे खा रहा हूँ

अगर मुमकिन हो ले ले अपनी आहट
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ

हदें हुस्न-ओ-इश्क़ की मिलाकर
क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ

ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मुहब्बत
तेरे हाथों में लुटाता जा रहा हूँ

असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे कायल भी कराता जा रहा हूँ

भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ

तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ

जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ

मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ

ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप
"फ़िराक़" अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ