भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सिपाही देश के मेरे / राधेश्याम प्रगल्भ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह कविता अधूरी है, आपके पास हो तो पूरी कर दें

कफ़न को बाँधकर सर से,
चले हो आज जब घर से,
बवण्डर की तरह उमड़ो,
घटाओं की तरह घुमड़ो,
गरजते घन सरीखे तुम,
कि बिजली से भी तीखे तुम,
शत्रु के वक्ष में पैठो,
न क्षण भर सोच में बैठो,
न तिल भर भी बढ़े आगे,
प्राण की भीख ही माँगे,
अगर कोई नज़र टेढ़ी हमारी भूमि को हेरे !
सिपाही देश के मेरे !

हमारे युद्ध की ‘कविता’
सदा ‘आशा’ लुटाती है,
मरण ही है यहाँ जीवन,
ये परिभाषा बताती है ।
कहो ललकार दुश्मन से
भला वह चाहता है तो,
लगाए अब नहीं फिर से,
कभी सीमान्त पर डेरे !
सिपाही देश की मेरे!